पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

-- (९४) सूरसागर। सुख कौशल्या उठिधाई । उदित वदन अरु मुदित सदनते आरति साजेि सुमित्रा ल्याई ॥ ज्यों सुरभीवन वसति बच्छविनु परवश पशुपनिकी वहराई। चली सांझ समुहाय श्रवत थन उमगि मिलन जननी दोउ आई॥ अमीवचन सुनि होत कुलाहल देवन दिव्य दुंदुभी बजाई । दधिफल दूब कनकके कोपर आरति युवति विचित्र वनाई ॥वरण वरण पट पडत पांवड़े नैननि सकल सुखदही छाई । पुलकित रोम हर्प गदगद सुर युवतिन मंगल गाथा गाई ॥ निज मंदिरमें आनि तिलकदै द्विजन अशीश सुनाई । सिया सहित सुख लेहो ह्यां तुम सूरदास बलि जाई ॥ श्री राम राज्याभिषेक ॥ राग मारू ॥ मणि मय आसन आनि धरे । दधि मधु नीर कजकके कोपर आपुन भरत भरे।। प्रथम भरत बैठाइ बंधुको यह कहि पाँइ परे । हौं पावन प्रभुचरण पखारों रुचि करि आप करे ॥ निज कर चरण पखारि प्रेम रस आनंद आंसु ढरे । ज्यों शीतल संताप सलिलदै शुद्धि समूह करे ॥ परसत पाणि चरण पावन दुःख अंग अंग सकल हरे। सुर सहित आमोद चरण जल लेकर शीश धरे ॥ १६५॥ राग आसावरी ॥ रान समान वर्णन ॥ विनती केहिविधि प्रभुहि सुनाऊं । महाराज रघुवीर धीरको समय न कवहूं पाऊं ॥ याम रहत यामिन के वीते तिहि औसर उठि धाऊं । सकुच होत सुकुमार नींदसे कैसे प्रभुहि जगाऊं ॥ दिनकर किरण उदित ब्रह्मादिक रुद्रादिक इकठाऊं । अगणित भीर अमर मुनिगनकी तिहिते ठौरन पाउं॥ उठतसभा दिन मध्य सियापति देखि भीर फिरि आऊं। न्हात खात सुख करत साहिबी कैसे कर अनसाऊं। रजनी मुख आवत गुण गावत नारद तुम्बर नाऊं। तुमहीं कही कृपण हौं रघुपति किहिविधि दुख समझाऊं । एक उपाय करौ कमलापति कहो तो कहि समझाऊं। पतित उधारण मूर नाम प्रभु लिखि कागद पहुँचाऊं ॥१६६॥ इन्द्र दुराचार, इन्द्र अहल्या मति गौतम शापाराग विलावल || सुरपति गौतम नारि निहार ।आतुर है गयो बिना विचारशकागरूप करि ऋपि गृह आयो।अर्ध निशा तेहिं बोल सुनायो॥ गौतम लख्यो प्रात है भयो ।न्हान काज सो सरिता गयो। तब सुरपति मन माहि विचारी। प्रतिव्रता है गौतम नारी ॥ गौतम रूप विना जो जये । ताके शाप अग्निसों दहिये। गौतम रूपधारि तहँ आयो । मूर्छित भयो अहिल्या पायो ॥ कहयो अहिल्या तूको आहि । गि यहांते वाहिर जाहि।। यहि अंतर गौतम ऋपि आयो । इन्द्र जानि यह वचन सुनायो॥ तू इन्द्राणी तजि ह्यां आयो। मूरखतें परत्रिय मन लायो॥ इक भग की तोहि इच्छा भई । भग सहस्र मैं तो तन दई ॥ इन्द्र शरीर सहसतनभई । छप्यो सो कमलनालमें जई ॥ काल बहुत ता और वितायो। सुनि गुरु ऋषिन सहित तब आयो । यज्ञकराइ प्रयाग न्हवायो। तौह पूरव तनु नहिं पायो ।तब सब ऋषिन दई आशीश । भगते नेत्र करोजगदीश।। भग स्थान नेत्र तब भये। ऋपि इन्द्रहि लैसुरपुर गये । परत्रिय मोह इन्द्र दुख पायो । सो नृप मैं तोहि कहि समुझायो ।। परत्रिय नेह करै जोकोई। जीवत नरक करत है सोई॥शुक नृपसों ज्यों कहि समुझायो । सूरदास त्योंही कहि गायो॥१६॥ राना नहुष राज्य प्राप्ति । इन्द्राणी चाह । ब्रह्म शापते सर्प देह पावन राग बिलावल ॥ सुरपतिको शाप जव भयो । सो सुरपुर लजित नहिं गयो । नहुप नृपतिपै ऋपि सब आई । कह्यो सुरराज करो तुम जाई ॥ नहुष इन्द्र राज जब पायो। इन्द्राणी को देखि लुभायो। कह्यो इन्द्राणी मोपै आवै। नृपसों ताको कहा वसावै ॥ सुरगुरुसों यह बात सुनाई। अवधि करन तिहि कहि समुझाई ॥ शची नृपतिसों सोई भाषी । नृप सुनिकै हृदयमें राखी ॥ शची अनिको तुरत पठायो। सुरपति दशादे खिसो आयो॥ इन्द्राणी सुनि व्याकुल भई । अवधि घरी व्यतीत कै गई ॥ तब तिन ऐसी बुधि -