पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९२

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दशमस्कन्ध-१० (९९) | देश देशके दूत बुलावहु कासों हैछल कैसोहो।अविगत अजर अजीत अमरता करताको बल जैसो । हो ॥ ४५ ॥ दिनही दिन सो पुरुष होतहै वढत असुर बल जैसोहो । बूझतमहि तृणभार बुझायो पवली कार्षन नैसोहै ॥४६॥ जागी महरि पुत्र मुख देख्यौ आनंद तूर वजायोहोकंचन कलस होम द्विज पूजा चंदन भवन लिपायोहो॥४ावरण वरण रंग ग्वाल बने मिलि गोपिन मंगल गायोहो। बहुविधि व्योम कुसुम सुर वर्षत फूलन मंडप छायोहो ॥ ४८ ॥ आनंद भरे करत कौतूह- ल प्रेममगन व्रज नर नारीहो । अभयनिभय नीसान बजावत देत महरिको गारीहो ।॥ १९॥नाचत महर मुदित मन कीन्हे ग्वाल बजावत तारीहो । सूरदास प्रभु गोकुल प्रगटे मथुरा गर्वप्रहारीहो। ॥॥ अथ प्रथम लीला मथुराते गोकल आए ॥ राग बिलावल ॥ हरिमुख देखिये वसुदेव ॥ कोटिकाम स्वरूप सुंदर कोउ न जानत भेव । चारि भुजा जाके चारि आयुध निरखि लैकरताउ । जोपै मन परतीत आवै वावा नंद घर लैजाउ ॥ वान सूते पहरुआ सब नीद उपजी गेह । निशि अँधेरी बीजु चमकै सघन वरपै मेह । झरे ताला पहरु पौठे सुलिगये वज्रकेंवार। वंदिवेरी सबै छूटी कहौ कौन विचार । सिंह आगे शेप पाछे यमुनाभई भरपूर नासिका बहु नीर आए पार पहिलो दूराकृष्णने हुंकार छोड्यो यमुना मान्योहेत । चरण परसत थाह दीन्ही वसुदेव उतरे सेत ॥ देन अमर और कमर फूली अंग नसमाइ । भिक्षुक भाट सब द्वार ठाढे देख यशोमति आइ । वावानंदसौं मनुहार करिहौ सुनि नलेहु वसुदेव । सूर सुतही जानि अपनो कृष्णको करिसेव ११२३॥ ४॥ राग केदारो हो पिय सो उपाय कछु कीजै । जहि तेहि विधि दुराय इह बालक राखि कंससोलाज।मनसा वाचा कहत कर्मना नृपातहि नहीं पतीजै । बुधि वल छल कल कैसेहूँकरिकै काटि अनत लैदीजै ।। नाहिन यतनो भाग सो यहरस नितलोचन पुटपीज। सुनहु सूर ऐसे सुतको सुख निरखिनिरखिजग जीजै ॥५॥राग केदारा ॥ सुन देवकी को हितू हमारे । असुर कंस अपवंश विनाशनशिरपर बैठेहैं रखवारे। ऐसो को समरथ त्रिभुवनमें जो यह बालक नेक उवारौ।खड्गधरे आयो तो देखत अपने कर क्षणमाह पछारे ॥ यह सुनतहि अकुलाइ गिरीधर नैननीर भरिभरि दोउडारे। दुखित देखि वसुदेव देवकी प्रगटभये धरिकै भुजचारे ॥ वोलत उठे प्रतिज्ञा प्रभु यह मोते उवरै तव मोहिं मारे। अति दुखमें सुखदै पितु मातहि सूरको प्रभु नंदभवन सिधारे ॥ ६ ॥ भादोंभरकी राति अँधियारी । द्वारकपाट कोटभट रोके दहदिशि कंस भय भारी ॥ गर्जत मेघ महा डर लागत वीच वढी यमुना जलकारीतवते इहै सोच जिय मेरे क्यों दुरिहै शशिवदन उज्यारी।कतपिय वोल वचन करिराखी वरु ताहीदिन जीवनमारी । कहि जाको ऐसो सुत विछुरै सो कैसे जीवै महतारी ॥कार नविलाप देवकी सो कहि दीनदयालु भक्त भयहारी । छूटिगयो निविड तवहिं गए गोकुल सूर सुमतिदै विपति निवारी ॥ ७॥ राग धनाश्री ॥ अँधियारी भादौंकी राति । बालकको वसुदेव देवकी पठै पठे पछिताति ॥ बीचनदी घन गर्जत वर्पत दामनिकोंधतजाति । बैठत उठत सेज सोवरि में कंस डरनि अकुलाति ॥ गोकुल वाजत सुनी वधाई लोगन हेरि सिहाति । सूरदास आनंद नंदके देत कनक नगदाति ॥ ८॥ विहागरो ॥ देवकी मन मन चकृत भई। देखहु आइ पुत्र मुख काहेन ऐसी कह देखि नदई॥शिरपर मुकुट पीत उपरेना भृगुपद उर भुजचारिकरे। पूरवकथा सुनाइ कही हरि तुम माँग्यो वह वेपधरे । छोटे निमिड सो आये पहरू द्वारेको कपाट उपरयो । तुरत मोहि गोकुल जावहुले यह कहतहि शिशुभेप धरयो। वसुदेव तवहिं उठे यह सुनतहि हर्पवंत नंदभवन गये। वालक धरयो लाई सुरदेवी आइ सूर मधुपुरी भये॥९॥राग बिलावलाआनंदे आनंदवब्योति । देवन -