पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९३

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(१००) सूरसागर। दइ दुंदुभी वजाई सुनि मथुरा प्रगटे यादवपति ॥ विद्याधर किन्नरी कंठधर उपजावत अनुराग अमितअति । गावत गगन धरणि ध्वनि सुनियत गर्जत धन तेहिकालं जतनजति ॥ वर्पत समन सुदेशसूर सुर जयजयकार करत मानत रति ॥ शिव विरंचि इंद्रादि सनक मुनि फूले सुख नसमात मुदितमति ॥ १०॥ कमलनयन शशिवदन मनोहर देखिए विचित्रगति । श्याम सुभगतनु पीतव- सन इति उर वाने सोहै अति ॥ नख मणि मुकुट प्रभा अति उदितचित चकृत उनमान नयावति। अतिप्रकाश निशि विमल तिमिर छुटि कलमलि मलिपतिहि जगावति ॥ दरशन सुखी दुखीमति । सोचत षटसुत सोक सुरति उर भावति । सूरदास प्रभु लेहु पुराकृत भुजके चिह्न दुरावति ॥११॥ गोकुल प्रगटभए हरि आई। अमर उधारन भसुर संहारन अंतर्यामी त्रिभुवनराई । माथेपर धरि वसुदेव ल्याए नंदमहर घरगे पहुँचाई। जागी महार पुत्रमुख देखत पुलकअंग उर में न समाई।. गद्गद कंठ बोल नहिं आवै हर्षवंतह नंद बुलाई॥ आवहु कंत देव परसन भए. पुत्र भयो मुख देखौधाईदौरि नंद गए सुतमुख देख्योसो सोभा सुख मोपै वरण नजाइ।सूरदास पहिले यहमॉग्या दूधपिआवन यशुमतिमाइ ॥ १२॥ जागी महरि पुत्रमुख देख्यो आनंद तूर वजाइ । कंचन कल स हेम द्विजपूजा चंदन भवन लिपाइ ॥ दिनदशहीते वर्षे कुसुमनि फूलन गोकुल छाइ । नंदकहै इच्छा सब पूजी मनवांछित फल पाइआनंदभरे करत कौतूहल उदित मुदित नर नारी।निर्भय भए निसान बजावत देत निसंकेगारी नाचत महरमुदित मन कीनोग्वाल वजावत तारी। सूरदास प्रभु गोकुल प्रगटे मथुरा कंस प्रहारी ॥१३॥ नंदराइके नवनिधि आई ।माथे मुकुट श्रवण मणि कुंडल पीतवसन भुणचारु सुहाई ॥ वाजत ताल मृदंग यंत्रगति चरचि अरगजा अंग चढाई अक्षत दूब लिए शिरवंदत घर घर वंदनवार बँधाई ॥ छिरकत हरद दही हिय हर्पत गिरत अंग भरि लेत उठाई। सूरदास सब मिलत परस्पर दानदेत नहिं नंद अचाई ॥ १४ ॥ आजु वनको जिनि जाइ । सबै गाइ और बछरा समेत सब आनहु चित्र बनाइ ॥ ढोटाहैरे भयो महरिक कहत सुनाइ सुनाइ । सबहि घोषमें भयो कोलाहल आनंद उर न समाइ ॥ कतही गहर करत रेभैया वेगि चल्यो उठिधाइ । अपने अपने मनको चीत्यो नैननि देखौ आइ ॥ येक फिरत दधि दूब बधावत एक रहत गहिपाइ । एक परस्पर करत वधाई एक उठत हँसिगाइ। तरुण किसोर वृद्ध अरु बालक बैठ चौगुनेचाइ ॥ सूरदास सब प्रेम मगन भए गनत नराजा राई ॥ १५ ॥ राग रामकली ॥ हों एक बात नई सुनि आई । महरि यशोदा ढोटा जायो घर घर होत वधाई ॥ द्वारेभीर गोप गोपिनके महिमा वरणि नजाई।अति आनंद होत गोकुलमें रत्न भूमि सब छाई ॥ नाचत तरुण वृद्ध अरु बालक गोरस कीच मचाई । सूरदास स्वामी सुखसागर सुंदरश्याम. कन्हाई ॥ हौं सखी नई चाह एक पाई। ऐसे दिनन नंदके सुनियत उपजे पूत कन्हाई ॥ वाजत पवन निसान पंचविधि रुंज सुरज सहनाई । महर महरि ब्रज हाट लुटावत आनंद उर न समाई। चलौ सखी हमहूँ मिलिजैये वेगि करौ अतुराई। कोउ भूषण पहिरयो कोउ पहरति कोउ वैसेहि उठिधाईकंचन थार दूव दधि रोचन गावत चली वधाई भांति भांति पनि चली युवति गण यह उपमा. मोपै नहिं आई ॥ अमर विमान चढे सुरदेखत जय ध्वनि शब्द सुनाई ।। सूरदास प्रभु भक्त हेतु हित दुष्ठ नके दुखदाई॥१६॥ रागगूजरी ॥ सखीरी काहेको गहरु लगावति।सुतको जन्म यशोदाके गृह तालगि तुमहि बुलावति । कनकथार भरि लै दधि रोचन वेगि चलौ मिलि गावति ॥ साँचेहु सुत । | भयो नंदनायक के हौं नाहिन बौरावति ॥ आनंद उर अंचल न सँभारति शीश सुमन. वरपावति ।