पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९६

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दशमस्कन्ध-१० (१०३) वार महलमें जाइकाढाढ़ी और ढादिनि गावै हरिके ठाढ़े वजावै हरपि अशीश देत मस्तक नवाइको जोई जोई माँग्यो जिनि सोई सोई पायो तिनि दीजै सूरदास दर्श भक्तन वुलाइ ॥२६॥ रागगतश्री। आजु वधाई नंदके माई । सुन्दर नंद महरके मंदिर प्रगट्यो पूत सकल सुखकंदर ॥ यशुमति ढोटा ब्रजकी सोभा । देखि सखी कछु और लोभा ॥ लक्ष्मीसी जहां मालिनबोले । वंदन माला बांधत डालै ॥ द्वार बुहारत फिरत अष्टसिधि । कौरेन सथिया चीतत नवनिधि ।। गृह गृहते गोपी.गावती जब । रंगीली गलिनविच भीर भई तव ॥ सोवरनथाल रही हाथन लसि । कमलन चढिआए मानो शशि ॥उमगे प्रेमनदी छविपावै । नंदनंद सागरको धावै ॥ कंचन कलस जगमगेनग के भागे सकल अमंगल जगके । डोलत ग्वाल मानो रणजीते । भये सवहिके मनके चीते ॥ अति आनंद नंद रस भीने । पर्वत सात रत्नके दीने ॥ कामधेनु ते नेक नवीने । दैलख धेनु द्विजनको दीने ॥ नंदद्वार जे याचनाए । बहुरो फिरि याचक न कहाए । घरके ठाकुरके सुत जायो । सूरदास तब सब सुखपायो ॥२६॥ राग विलावळ ॥ आज गृहनंद महरिके वधाई। प्रात समय मोहन मुख निरखत कोटि चंद्र छविपाई।मिलि व्रजनारी मंगल गावत नंदभवन में आई। देति अशीश जियो यशुदासुत कोटिवर्ष कुँवरकन्हाई ॥ अतिआनंद वढ्यो गोकुलमें उपमा कही नज़ाई । सूरदास धनि नंदघरनिहै देखत नैन सिराई ॥२७॥राग जैनवंती ॥ माई.आज तो वधाई वाजे मंदिर महरके । फूले फिरें गोपी ग्वाल ठहर ठहरके ॥ फूली धेनु फूले धाम फूली गोपी अंग अंग । फूले फिरि तरुवर आनंद लहरके ॥ फूले वंदीजन द्वारे फूले फूले वंदनेवारे। फूले जहां जोइ सोइ गोकुल शहरक।।फूले फिरें यादव कुलआनंद समूल मूलाअंकुरित पुण्य फूले पिछले पहरके। उमगे यमुनाजल प्रफुलित कुंज पुंजके ॥ गर्जत कारे भारे यूथ जल घरकोनृत्यत मदन फूले फूली रति अंग अंगके । मनके मनोज फूले हलधर हरिके।फूिले द्विज संत वेद मिटिगयो कंस खेदके । गावतबधाई सूर भीतर वहरके ॥ फूलीहै यशोदारानी सुत जायो सारंग पानी भूपति उदार फले भार फरे घरके ॥२८॥ नेतश्री ॥ नंदजू मेरे मन आनंद भयो हौं गोवर्धनते आयो। तुमरे पुत्र भयो मैं सुनिकै अतिआतुर ठिधायो।वंदीजन अरु भिक्षुक सुनि सुनि दूरि दूरिते आयोइक पहिलेही आशा लागे बहुत दिननके छाये ॥ तेपहिरे कंचन मणि भूपण नानावसन अनूप । मोहिं मिले मारगमें आवत मानों जात कहके भूप ॥ तुमतो परमउदार नंदजू जिनि जो माग्यो सो दीनों ऐसो और कौन त्रिभुवनमें तुम सरि साको कानोकोटि देहुतौ रुचि नहिं मानों विन देखे नहि जैहों नंदराय सुनि विनती मेरी तवहि विदाभले हौं।जोमोहिं कृपा करीसोई जोहो होतो आयो माँगनायशु 'मति सुत अपने पाँइन जब खेलत आवै आंगनौजवतुम मदन मोहन करि टेरोइहि सुनिकै घरजाऊँ। होतो तेरो घरको ढाढी.सूरदासमेरोनाऊँ॥ २९ ॥ मैं घरको ढाढ़ीही तिहारो को मोसर करै आन। सोई लेहों जो मो, मनभावै नंदमहरकी आनधन्य नंद धनि धन्य यशोदा धनि धनि जायो.पूत । धन्य भूमि व्रजवासी धनि धनि आनंद करत. अकूत ॥ घर घर होत अनंद वधाई जहां तहां मागध सूत।माण मणिक पाटंबर देते लेत नवनत बहूताहिय गय सहन भंडार दिये सब फेरिभरेसेभाति। जवहिं देत तवहीं फिरि देखत संपति घर न समाति ॥ तेमोहिं मिले जात घर अपने मैं बूझी तव जाति । हँसि हँसि दौरि मिले अंकमभरि हम तुम एकै ज्ञाति ॥ संपति देहु लेहुँ नहि एको अन्न वस्त्र केहि काज.। जोहों तुमसों मांगन आयो सो लेहौं नंदराज ॥ अपने सुतको वदन देखावह वडे महर शिरताज । तुम साहव मैं ढाढी तेरो प्रभु मेरे ब्रजराज ॥ चंद्रवदन दरशन संपतिदै सो