पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९७

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(१०४) . . सूरसागर । THome मैं लै पुरजाउँ । सो संपति सनकादिक दुर्लभ सोहै तुमरे ठाउँ ॥ जाको नेति नेति श्रुति गावंत तेउ कमलपद धाऊं।होतेरो जन्म जन्मको ढाढी सूरदास कहिगाऊ॥३०॥राग केदारोगानंद उदो सुनि आ- योहो वृषभानुको जगा । देवेको वडो महर देत न लावै गहर लालकी वधाई पाऊं लालको झगा। प्रफुलित बँकै आनदीनहै यशोदारानी झीनीए झगुली तामें कंचनको तगा । नाचे फूल्यो आँगनाइ सूर बखसीस पाइ माथेकै चढाइ लीनो लालको वगा॥३१॥ राग धनाश्री ॥ यशोमति लटकति पाँइ परे । तेरो भलो मनाइहौं झगरी न तूमति मनहि डरै ॥ दीन्हों हार सबै कर कंकण मोतिन थार भरै । सूरदास स्वामी प्रगटेहैं अवसर पाइ झगरै ॥ नंद जु दुःख गयो सुख. आयो सवन्हको दियो पुत्र फल मानौ । तुमरो पुत्र प्राण सवहिनको भवन चतुर्दश जानौ ॥ होतो तुम्हारो घरको ढाढी नावसेन सजपाउँ। गृहगोवर्धन वास हमारो घर तजि अनत नजाउँ । ढाढिनि मेरी नाचे गावै हौंही ठाटो वजावों॥ हमरो चीत्यो भयो तुम्हारे जोमांगौं सो पावों । अब तुम मोंको. करो अयाची जो ग्रह गेहविसा”॥द्वारेरहौं देहु एक मंदिर श्यामस्वरूप निहारों। हँसिढाढिनि ढाटी सों बोली अब तू वरणिवधाई । ऐसो दियो नदेहै सूर कोउ यशोमतिहौं पहिराई ॥ ३२ ॥ ढाढिनि दान मानकी भाई । नंदउदार भए पहिरावत बहुत भलै वनिआई॥ जब जव जन्म घरौं ढाढीको जन्म कर्म गुणगाऊं । अर्थ धर्म कामना मुक्तफल चार पदारथ पाऊं ॥ लै ढादिनि. कंचन मणि मुक्ता नाना वसन अनूप । हीरा रतन पाटवर हमको दीन्हे व्रज के भूप॥ अवतो भली भई नारायण दरशे नैन निरखिनिधि पाई । जहां तहां वंदनेवार विराजत घर घर वजत वधाई ॥जो याच्यो सोई तिन पायो तुमरिख भई विदाई ॥ भक्तिदेहु पालने झुलावों सूरदास वलिजाई ॥३३॥ छठीव्यवहार ॥६॥ राग सारंग ॥ गौरि गणेश विनऊहो देवीशारदतोहि ॥ गाऊहरिजीको सोहलो मन और आवै मोहिं । वधावो हरिको मन रहिवो रानी जायोहै मोहन पूत॥ घर आंगन बाहेर सवमांगे ठाढ़े मागध सूत। आठ मास चंदन पियोहो नवए पियो कपूर ॥ दशयें । मास मोहनभए मेरे आंगनरी पाजै धतूर । हाँ पार परोसिनि भए हरप नगरके लोग।हिरपी सखी सहेलरी सब आनंद भयोसुखयोग। वाजन वाजे गहगहे मिलि वाजै शारद भेरीमालिनि वांध तोरन मेरे आंगनरी रोपै आछेकरी। आने गढि सोना ढोलना पढिलाये चतुर सुनार ॥ विच विच हीरा लगे नंदलाल गरेको हार। यशुमति भाग सुहागिनी जिन जायो हरिसों पूत । करह ललनकी आरतीरी अरु दधिकादौ सूत । नाउनि वोलहु नवरंगी लै आवहु महावर वेग ॥ लाखटका अरु झूमकसारी देहु दाईको नेग। अगर चंदनको पालनो गढ़ई गुर ढार सुढार॥ लैआयो गढ़ि ढोलनी विश्वकर्मा सो सुतधार । धन्य सो दिन धन्य सोघरी धन्यसो जोतिकजाग ॥धन्य धन्य मथुरापुरीहो । धनि धनि महरिको भाग ॥ धनि धनि मातु देवकी धनि धनि महरिको भाग । धनि धनि मातु देवकी धनि धनि वसुदेव सुजान ॥ धनि धनि भादौं अष्टमी धनि जन्मलियो जब कान्ह । काढ़हु । कोरे कापरहो अरु काढौ घीकी मौन ।। जाति पांति पहिरायकै सब समदि छतीसौ पौन । काजर | रोरी आनोरी मिलिकरी छठीको चार ॥ एपनकीसी पूतरी सव सखियन कियोहै श्रृंगार । क्रीट मुकुट सोभावनी शुभअंग वनी वनमाल ॥ सूरदास प्रभु गोकुल जनमे मोहन मदन गोपाल ॥३४॥ ॥रागकाफी ॥ अति परमसुंदर पालनागढ़ि ल्यावर बढ़ेया । शीतल चंदन कटाउ धरि खरादि रंग: लगाउ विविध चौकी बनाउ रंगरेसम लगाउ हीरा मोती लाल मडैया ॥ विश्वकर्मा सुढार रचयो है काम सुनार मणि गणि लागे अपार नंदमहर सुत काज अद्वैया। आनि धरयो नंदद्वार अतिही। ।