पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९८

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%3- दशमस्कन्ध-१० (१८६) सुंदर सुढार व्रजवधू देखें वारवार सोभा नहिं वारपार धनि धनि धन्यहै गदैया ॥ पालनो आन्यो सवहि अति मनमान्यो नीको सोदिन धराइ सखिन मंगल गवाय रंगमहलमें पौन्यो है कन्हैया ॥ सूरदास प्रभुकी मैआ यशुमति नंदरानी जोई मांगत सोई लेत वधैया ॥३६॥ राग जयतश्री ब्रजको जीवन नंदलाल । असुर निकंदन भक्तपाल।किनकरतन मणि पालनौ अति गढनौ काम सुतार। विविध खेलौना भांति भांति के गजमुक्ता बहुधार । सुभगपालने झुलैहो नंदलाल मात पिता सुकृत फल जगपाल || जननि उवटि अन्हवायकै अतिक्रमसों लीनो गोद । पौढाये पट पालने शिशु निरखिं जननि मनमोद ।। अतिकोमल दिनसातके अधर चरण कर लाल। सूरश्याम छवि अरुणता निरपि हरपि ब्रजवाल ॥३६॥ राग धनाश्री ॥ यशोदा हरि पालने झुलावै । हल रावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोई कछु गावै ।। मेरे लालको आउ निदरिया काहेन आनि सुवावे । तू काहेन वेगीसी आवै तोको कान्ह बुलावै । कबहूं पलक हरि दिलेतहैं कबहू अधर फरकावै । सोवत जानि मौन बढ़ रही कर करि सैन वतावै ॥ इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि यशुमति मधुरै गावै । जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ सो नंदभामिनि पावै ॥ ३७॥ राग गौरी ॥ हालरो हलरावै माता । वलि वलि जाउँ घोप सुखदाता ॥ यशुमति अपनो पुण्य विचारै । वारवार शिशु वदन निहारै ॥ अंग फरकाय अलप मुसकानो। या छवि पर उपमाको जानो। हलरावति गवति कहि प्यारे । वालदशाके कौतुक भारोमहरि निरखि मुख हिय हुलसानी । सूरदास प्रभु सारंगपानी ॥राग धनाश्री ॥ कन्हैया हाल रुरे । गढि गुढिल्यायो वढई वलि हालरुरे॥ धरनि पर डिलाइ एकलखमाँगे बढई वलिहाल रुरे । दुइलखवावा नंदजीदेहीं ॥ काहेको तेरो पालना बलिहाल रुरे॥ काहेलागी डोर । रतन जडितको पालना वलिहालरुरे॥रेसम लागी डोर। कबहुँकझूलै पाल नालि हालरुरे । कबहुक नंदजीकी गोद। झुल सखी झुलावहीं वलिहालरुरे। सूरदास वलिजाही ॥३८॥ अथ(पृतनावध ॥ आजहों राजकाज करि आऊँ । वेगि सँहारौं सकल घोप शिशु जो सुख आयसु पाऊँ। तो मोहन मूर्छन वशीकरन पढ़ि अमित देह बढाऊँ। अंगसुभग सजिकै मधु मूरति नयननि माह समाऊँ ॥ पसिकै गरल चढाइ उरोजनिलै रुचिसों पयंप्याऊँ। सूरदास प्रभु जीवत ल्याऊं तो पूतना कहाऊं ॥ ३९ ॥ विहागरो ।। कंसराय जिय सोच परी । कहाकरौं काको ब्रज पठऊं विधना कहा करी ॥ वारंवार विचारत मनमें भूपनीद बिसरी । सूर बुलाइ पूतनासों कह्यो करुन विलंब घरी ॥ ४० ॥ राग धनाश्री ॥ रूप मोहनी धरि व्रज आई । अद्भुत साजि शंगार मनोहर असुर कंसदै पान पठाई । कुच विपवाँटि लगाइ कपटकरि वालघातिनी परमसुहाई । बैठी हुती यशोदामंदिर दुलरावति सुत श्यामकन्हाई । प्रगटभई तहां आइ पूतना प्रेरितकाल ॥ अवधि नियराई ॥ आवतपीठा वैठन दीनो कुशलवूझि अति निकट बुलाई ॥ पौढ़ाये हरि सुभगपालने नंदघरनि कछु काज सिधाई ।वालक लियो उछंग दुष्टमति हर्पत स्तनपान कराई ॥ वदन निहारि प्राणहरिलीनो परी राक्षसी योजनताई । सूरजदै जननी गति ताको कृपाकरी निजधाम पठाई॥४१॥ प्रथम कंस पूतना पठाई । नंदघरनि जहँ सुतलिए बैठी चलि तेहि धामहि आई ॥ अतिमोहनी रूप धरि लीनो देखत सवहीके मनभाई। यशुमति रही देखि वाको मुख काकी वधू कौनधौं आई नंदसुवन तवहीं पहिचानी असुर घरनि असुरनकी जाई ॥ आपुन वज्र समान भए हरि माता दुखित भई भरपाई । अहो महरि पालागनमेरो हो तुम्हरो सुत देखन आई । यहकहि गोद लियो अपने तब त्रिभुवनपति मनमन मुसकाई । मुखचूंन्यो गहि कठ लगाए विप लह्या स्तन मुख