पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१९९

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(१०६) सूरसागर। लाई ॥ पयसंग प्राणऐंचि हरिलीन्हे योजन एक परी मुरझाई। त्राहि त्राहि कहि ब्रजजन धाई अग्नि वालक क्यों बच्यो कन्हाई । अतिआनंद सहित सुतपायो हृदये मांझ रहे लपटाई॥ करवर ढरीबड़ी मेरेकी घर घर आनंद करत वधाई सूरश्याम पूतना पछारी यह सुनि जिय डरप्यो नृपराई ॥४२॥ राग सारंग ॥ कपटकरि ब्रजहि पूतना आई। रूप स्वरूप विषम स्तन लाए राजा कंस पठाई ॥ मुखवत अरु नैन निहारत राखत कंठ लगाई। भाग्यवडे तुमरे नंदरानी जिनके कुँवर कन्हाई ॥करगहि क्षीर पियावत अपनो जानत केशवराई । वाहर होइकै असुर पुकारी अव वलि लेहु छोडाई ॥ गई मुर्जाइपरी धर मानो भुवंगम खाई । सूरदास प्रभु तुमरी लीला भक्तन गाइ सुनाई ॥४३॥ राग धनाश्री।। देखो यह विपरीत भईअिद्भुत रूप नारि करि आई कपट हेतु वयोंसहै दई ॥ कान्हैलै यशुमतिकोराते रुचिकार कंठ लगाई । तब वह देह धरी योजनलौं श्यामरहे लपटाई । बडेभाग्यहैं नंदमहरके बडभागिन नंदरानी। सूरश्याम उर ऊपर वारे यह सब घर पर जानी ॥४४॥ विहागरो ॥ नेक गोपालै मोको दैरी । देखों कमलवदन नीके करि ता पाछैतू कनिया लैरी ॥ अतिकोमल कर चरणसरोरुह अधर दशन नासा सोहरी । लटकन शीशकंठमणि भ्राजत मन्मथ कोटि वारने गैरी॥ वासर निशा विचारतही सखि यह सुखकवहुँ न पायो मैरी। निगमन धन सनकादिक सर्वसु भाग्यवडे पायो नैं हैरी।।जाको रूप जगत्के लोचन कोटि चंद्र रवि लाजत भैरी ॥ सूरदास बलिजाइ यशोदा गोपिन प्राण पूतना वैरी॥४६|राग जैतश्री ॥ कन्हैया हाल रोहाल रोई । हौं वारी तेरे इंदु वदनपर अति छवि अलसनिरोई ॥ कमलनयन को कपट कियेमाई इंहि ब्रज आवै जोई। पालागों विधि ताहिं वकीजौं तूतिह तुरत विगोई।सुन देवता बड़े जगपावन तू पतिया कुलकोई ॥पय पूजिहाँ वेगि यह बालक करिदै मोहि वडोई । द्वितिये के शशिलौं वा शिशु देखै जननि जसोई । यह सुखसूरदासके नयनन दिन दिन दूनो होई ॥ ४६॥ रागकान्हरो॥ पालने श्याम हलावति जननी । अति अनुराग परस्पर गावत प्रफुल्लिततमगन मुदित नंद घरनी॥ उमगि उमगि प्रभु भुजा पसारत हरष यशोमति अंकम भरनी। सूरदास प्रभु मुदित यशोदा पूरण भंई पुरातन करनी ॥४७॥ रागविलावल ॥ गोपाल माई पालने झुलाए । सुर मुनि कोटि देव तेतीसों देखन कौतुक अंमर छाए।जाको अंत न ब्रह्मा जानन शिव सनकादि न पाए । सो अव देखो नंद यशोदा हरषि हरषि हलराये ॥. हुलसत दुलसि करत किलकारी मन अभिलाख बढ़ाए ॥ सूरश्याम भक्तन हितकारन नानावेषमनाए४ि८॥सिद्धर बाँभन करम कसाइकहाँ कससो वचत सुनाई प्रभु मैं तुम्हरो आज्ञाकारी। नंदवन को आवों मारी ॥ कंस करो तुमते इह होई । तुरत जाहु कर विलंब न कोई॥ शिरधर नंदभवेत चलिआयो। यशोदा उठिकै माथो नायो । करो रसोई मैं चलि जावोतुम्हरे हेतु यमुनजल ल्याली॥ इहकहि यशुदा यमुना गई। सिद्धर कही भली इह भई । उन अपने मनमारन ठानो । हरिज़ी ताको तवही जानो ॥ ब्राह्मणमारे नहीं भलाई । अंग याको मैं देंउ नशाई ॥ जवहीं ब्राह्मण हरिढिग आयो । हाथ पकर हरि ताहि गिरायो । गोड चापले जीभ मरोरी । दधि ढरकायो भाजन फोरी ॥ राख्यो कछु तेहि मुख लपटाई ॥ आपुरहे पलनापर आई ॥ रोवन लागे कृष्ण विनानी। यशुमति आइगर्हलै पानी॥ रोवत देखि कहयो अकुलाई ॥ कहाकरयो तै विप्र अन्याई ॥ ब्राह्मणके मुख वात नआवै । जीभहोइ तौ कहि समुझावै ॥ ब्राह्मणको घरवाहर कीन्हों। गोद उठाइ कृष्ण को लीन्हो ॥ पुरवासी सब देखन आए। सूरदास हरिके गुणगाए ॥४९॥ सुन्यो कंस पूतना मारी। सोचभयो ताकेजिय,