पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२००

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दशमस्कन्ध-१० (१०७) भारी ॥ कागासुरको निकट बुलायो । तासों कहि सब वचन सुनायो । मम आयसु तुम माथे धरौ । छलबल करि ममकारज करौ॥ इह सुनिकै तिन्ह माथोनायो। सूर तुरत ब्रजको उठिधायो ॥६०॥ अथ कागासुरको आयवो ॥ राग सारंग ॥ कागरूप एक दनुज धरयो । नृप आयसु लैकर माथे पर हर्षवंत उर गर्व भरयो॥ कितिक वात प्रभु तुम आयसुलै यह जानो मो जात मरयो। इतनी कहि गोकुल उठि आयो आइ नंदघर छाजरक्यो ॥ पलना पर पौढे हरि देखे तुरत आइ नैननि सों अरयो । कंठ चापि बहु वार फिरायो गहि पटक्यो नृपपास परयो । तुरत कंस पूछन तेहि लाग्यो क्यो आयो नहिं काज सरयो । वत्यिो जाम ज्वार जब आयो सुनहु कंस तेरो आयुसरयो॥धारे अवतार महावल कोऊ एकहि कर मेरो गर्व हरयो। सूरदास प्रभु कंसनिकंदन भक्तहेतु अवतार धरयो ॥ ५१॥राग विलावल ॥ मथुरापति जिय अतिहि डेरान्यौ । सभामाँझ असुरनिके आगे वार वार शिर ध्वनि पछितान्यौ । व्रज भीतर उपज्यो मेरो रिपु मैं जानी यह वात । दिनही दिन बहु वढत जातुहै मोको करिहै घात ॥ दनुजसुता पूतना पठाई छिनकहि माँझ संहारी । धीच मरोरि कागसुर दीनो मेरे ढिग फटकारी ।। अवहींते यह हाल करतुहैं दिन दिन होत प्रकाश । सैनापतिन सुनाइ बात यह नृपमन भयो उदास ॥. ऐसो कौन मारिहै ताको मोहिं कहै सो आय । वाको मारि अपनपौ राखे सूर ब्रजहि सो जाइ ॥५२॥ अथ शकटासुरको कस आज्ञा मांगन । गौड मलार॥ नृपति बात यह संवनि सुनायो । मुहांचही सैनापतिकीनो शकटासुर मन गर्व वढायो । दोउ कर जोरि भयो तव ठाढो प्रभु आयसु मैं पाऊं। ह्यांते जाइ तुरतही मारों कहौतो जीवत ल्याऊं ॥ यह सुनि नृपति हर्पमन कीनो तुरतहि वीरादीनों। वारंवार सूर कहि ताको आपु प्रशंसाकीनो ॥ ५३॥ गौडमलार ॥ पानलै चल्यो नृपआन कीन्हो । गयो शिरनाइकै गर्वही बढाइकै शकटको रूपधरि असुर लीन्हो ॥ सुनत घहरानि ब्रजलोग चकृतभए कहा आघात ध्वनि करतु आवै । देखि आकास चहुँपास दशहूं दिशा डरे नर नारि तनुसुधि भुलावै । आपु गयो तहीं जहँ प्रभु रहे पालने करगहे चरण अंगुठ चचोरहि । किलकिकिलकिहँसत वाल शोभा लसत जानितिहि कसत रिपु आयौ भोरहि । नेक फटक्योलात शब्द भयो आघात गिरयौ भहरात शकटा संहारयो ॥ सूरप्रभु नंदलाल दनुज मारयो ख्याल मोट जंजाल ब्रजजन उवारयो ॥ राग बिभास ॥ देखो सखी अद्भुत रूप अतूय । एक अंबुज मध्य देखियत वीस उदधि सुंत यूथ ॥ एकसूकदोऊ जलचर उभयो अर्कअनूप । पंचविराजे एकहि दिग् बहु संखिकौन स्वरूप ।। शिशु तामै सोभा भई करो अर्थ विचारी । सूर श्रीगोपालकी छवि राखियउरधारी ॥५४॥ राग बिलावल । कर पग गहि अंगुठा मुख मेलत । प्रभुपौढे पालने अकेले हरपिरअपने रंग खेलता|शिवसोचत विधि बुद्धि विचारत वटवाव्योसागर जलझेलताविडार चले घन प्रलयजानिकै दिगपति दिग दंतौन सकेलता।मुनि मन भीत भए भव कंपित शेपसकुचि सहसौ फन पेलत । उन ब्रजवासिन वात न जानी समुझेसूर शकट पगु पेलत ॥ ५५ ॥ चरणगहे अंगुठा मुख मेलत । नंदघरनि गावति हलरावति पलना पर किलकत हरि खेलताजोचर णार्विद श्रीभूपण उरते नेकु.नटारति ।। कापौधोकारसु चरणनमें मुखमेलत करिः आरति । जा चरणाविदके रसको सुर नर करत विवाद। यह रस है मोको दुर्लभता ताते लेत सवाद । उछलत सिंधु धराधर काप्यो कमठपीत अकुलाइ।शेपसहसफन डोलन लाग्यो हरि पीवत जव पाइ॥वढ्यौ विछावट सुर अकुलाने गगनभयो उत्पातामहाप्रलयके मेघ उठेकरि जहाँ तहाँ आघात।।करुणाकरी