पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२०३

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सूरसागर। वलिजाय हालरु हालरो गोपाल । दधिहि विलोइ सदमाखन राख्यो मिश्री सानि चढावै । नंदलाल ॥ कंचनके खंभ मयारि मरुवाडांडी खचि हीरा विच लाल प्रवाल। रेसम चुनाइनव रतन लाइ पालनोलटकन बहुत पिरोजालाल ॥ मोतिन झालरि नानाभांति खिलौना रचे विश्व कर्मासुतिहार। देखि देखि किलकत दतिया दो राजत क्रीडत विविध विहार । कठुलाकंठ बजके- हरिनख राजै मसविंदुका मृगमद भाल। देखत देत अशीशवजजन नर नारी चिरजीवो यशोदा तेरो वाल । सुर नर मुनि कौतूहल फूले झूलत देखतनंदकुमार ॥ हरपत सुमन अपार वर्पतनम ध्वनिछायो जैजैकार ॥ ७३ ॥ अथ अष्टम अध्यायनामकर्म । राग बिलावल ॥ महरभवन ऋपिराज गए चरणधोइ चरणोदक लीनो अरघ आसन कार हेतदए ॥ धन्य आजु बड़भाग्य हमारे ऋपिआए अतिकृपाकरी॥ हमकहधनि धनि नंद यशोदा धनि यह ब्रज जहां प्रगट हरी । आदि अनादि रूप रेखा नहिं इनते प्रभु नहिं और वियो । देवकी उदर अवतार लेनको दूध पीवन तब मांगिलियो । बालक करि इनको जिनि जानौ कंसको वध एकरिहैं ।सूर देह धरि सुरनरधारन भूमिभार एहरिहरिहैं ॥७४ ॥ धन्य यशोदा भाग्य तुम्हारो जिनि ऐसो सुतजायो । जाकेदरशपर स सुख तन मन कुलको तिमिर नशायो॥ विप्रसुजन चारण वंदीजन सकल नंद गृह आए। नौतम सुभग हरद दूब दधि हर्षित शीश बंधाए। गर्गनिरूप कहै सब लक्षण अविगति, अविनासी सूरदास सुनते यश हरिके आनंदे ब्रजवासी ॥७॥ अन्नमासनलीला ॥ कान्ह कुंवरकी करहु अन्नप्रासनी कछु दिन घटि पटमास गए। नंदमहर यह सुनि पुलकित.. जिय हरि अन्नप्रासन योग भए । विप्रवुलाइ नामलै बूझ्यो राशिशोधि इक दिनहि धरौ । आछो दिन मुनि महर यशोदा सखिन वोलि शुभगान करौ।युवति महरिको गारी गावति और महरको नाम लियो । ब्रज घर घर आनंद बब्योअति प्रेमपुलक न समात हियो । जाको नेति नेति श्रुति गावत ध्यावत शिव मुनि ध्यान धरे सूरदास तिनको व्रज युवती झकझोरति उर अंक भरे।। ७६॥ राग सारंग ॥ आजु कान्ह करिहै अनप्रासन मणिकंचनकेथार भराए।भांति भांतिके वासननंदघरनि सववधूलाईजे सब अपनी जाति कोउ जिवनार करात कोउधृत पक षटरसके बहुभांति ॥ बहुत प्रकार किये सब व्यंजन अनेक वरन मिष्टान । अति उज्ज्वल कोमल सुठि सुंदर महरि देखिमनमानायशुमति नंदहि वोलि कह्यो तव महर बुलाइ बहु जाति । आपुगए नंद सकल महर घर ले आये सवज्ञाति ॥ आदर कार वैठाइ सवनिको भीतर गये नंदराइ । यशुमति उवटि न्हवाइ कान्हको पटभूषण पहिराइ ॥ तन झगुली शिरलाल चौतनी करचूरा दुहुपाइ। वारवार मुख निरखि यशोदा पुनि पुनि लेत वला इधरी जानि सुत मुखजुठरावन नंद वैठे लै गोदामहर वोलि बैठार मंडली आनंद करत विनोद।। कंचनथार लै खीर धरीभरि तापर घृत मधु नाइ । नंद लैलै हरिमुख जुठरावत नारि उठी सन गाइ॥ षटरसके परकार जहांलगि लैलै अधर छुवावत । विश्वंभर जगदीश जगतगुरु परसत मुख. करुवावत ॥ तनक तनक जल अधर पोंछिकै यशुमति पै पहुंचाए । हर्षवंत युवती सव लैलै मुख चूमति उर लाए।महर गोप सवही मिलि वैठे पनवारे परसाए। भोजन करत अधिक रुचि उपजी जो जेहिके मन भाए ॥ इहिविधि सुखविलसत ब्रजवासी धनि गोकुल नर नारी । नंदसुवनकी या. छवि ऊपर सूरदास बलिहारी ॥७७॥ राग सारंग ॥हरिको मुख माई मोहिं अनुदिन अतिभावः। चितवत चित नैननिकी मति सवगति विसरावै ॥ ललना लैलै उछंग अधिक लोभ सो लागे । निरखति निंदति निमेप करत ओट आगे। सोभित शुभ कपोल अधर अल्प: अल्पं दशना।। -