पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२०५

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(११२) सूरसागर। . ... तुन तोरति अरस परसनि ॥ ८५ ॥ श्रीकृष्णजीको कनछेदन लीला राग धनाश्री ॥ कान्ह कंवरको । | कनछेदनोहै हाथ सुहारी भेलीगुरकी । विधिविहँसत हारहँसत हेरि हरि यशुमतिके धकधुकी उरकी ॥ रोचन भरि लैदैत सीकसो श्रवणनिकट अतिही चतुरकी ॥ कंचन है घर मँगाइलिये कहै कहा छेदन आतुरकी । लोचन भरि भरि दोर माताके कनछे- दन देखत जिय मुरकी ॥ रोवत देखि जननि अकुलानी लियो तुरत नौवाको झरकी हँसत नंदयुवती सब विहँसी झमकि चली सत्र भीतर दुरकी ॥ सूरदास नंद करत बधाई अतिआनंद वालाव्रज पुरको ।। ८६ ॥ जयहि भयो कनछेदन हरिको । सुरवनिता सब कहत । । परस्पर ब्रजवासी दासी समसरिको ।। गोपी मगनभई सब गावति हलरावत सुत महर महरिको जो सुख मुनि जन ध्यान नपावत सो सुख नंद करत सब घरकोमणि मुक्तागणकरत न्यवछावार तुरत देत विलम नहिं परिको। सुर नंद ब्रज जन पहिरावत उमाग चल्यो सुखसिंधु लहरको ।। ८७ ॥ अथ घुटुरवनिचलिवो ॥ खेलत नंद आंगन गोविंद। निरखि निरखि यशुमति सुखपावति ।। वदन मनोहरचंद ।। कटि किंकिनी कंठ मणिकी दुति लट मुकुता भरिभाल । परम सुदेश | कंठ केहार नख विच विच वज्र प्रवाल ॥ कर पहुचिया पांयनपैंजनी सुरतन रंजित रजपीतः। घुटुरुनि चलत अजिर में विहरत मुखमंडित नवनीत ॥ सूर विचित्र कान्हकी चानक वाणी कहत. नहीं वनिआवै ।वालदशा अवलोकि सकल मुनि योग विरति विसरावै ॥ ८८ ॥ आसावरी ॥ घुटुर- वन चलत श्याम मणि आंगन मात पिता दोउ देखतरी। कबहुँक किलकिलात मुख हेरत कबहुँ जननि सुखपेषतरी ॥ लटकन लटकत ललित भालपर काजरविंदु ध्रुव ऊपररी । यह सोभा नैननि. भरिदे नहिं उपमा तिहुँ भूप हरी । कबहुँक दौरि घुटुरुवन लटकत गिरत परत फिरि धावतिरी । इतते नंद बुलाइ लेतहैं उतते जननि बुलावतिरी ॥ दंपति होड करत आपुसमें श्याम खिलौना कीनोरी ॥ सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन सुत हित करि दोउ लीनोरी ॥ ८९ ॥ राग सारंग ।। निराखिछवि फूलतहै ब्रजराज । उत यशुदा इत आपु परस्पर आडे रहे कर पाज किकिनि कटि मध्य प्रसरित भुज उभय मिलत फुनिलाज । झुमित लरत अलि सैन सरोज पर मन मकरंदके काज ॥ अगिरा मृदु श्रवत सुधा जनु पिवत श्रुतिनिपटआज । सूरदास प्रभु सुत रात २ कार लैलै ऊपर भ्राज ॥ ९ ॥ विलावल । सोभित कर नवनीत लिये। घुटुरुन चलत रेणुतनुमंडित मुखदधि लेप किये । चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक किये ॥ लट लटकनि मनो मत्त मधुप गन मादक मदहि पिये ॥ कठुला कंठ वज्रके हरिनख राजत रुचिरहिये धन्य सूर एको पलमा सुख का सतकल्प जिये ।। ९१ ॥ राग ललित ॥ माई विहरत गोपाललाल मणिमय रच्यो अंगना परिरांगना घुटुरवनि डोले । निरखि निरखि अपनो प्रतिक्वि हँसत किल- कत पाछे फिर फिर चितै मैया मैया वोलाज्यों ज्यों अलिगण सहित विमलजल धाइ रहेकुटिल अलं: क वहनकी छवि अवनी प्रतिलालै । सूरदास छवि निहारि थकित रहे सब योपनारे तन मन धन देति वारिवारि ओले ॥ ९२॥ राग विलावल वाल विनोद खरो जिय भावत । मुख. प्रतिविव करिखें कारन हुलसि घुटुरुवनि धावत ॥ छिनक माँझ त्रिभुवनकी लीला शिशुता माहँ दुरावत ॥ शंठएक वोल्यो चाहतहैं प्रगट वचन नहिं आवत.॥ कमलनैन माखन माँगतहैं ग्वालनि सैन वतावत । सूर श्याम सुसनेह.मनोहर यशुमति प्रीतिं वदावत।।९३॥रागसारंग ॥ वलिजा श्याम मनोहर नैन|अब | चितवत मोहन करि अँखियन मधुप देत मनौं सैन ॥ कुंचित अलक तिलक गोरोचन शशिपूरह ।