पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२०८

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दशमस्कन्ध-१० (११) ललित ललाट लटूरी । दमकत द्वैदै दंतुरियारूरी । मुनिमन हरत मंजु मसिविंदा । ललित वदन वल वाल गोविंदा ।। कुलही चित्र विचित्र झाली। निरखि यशोदा रोहिणिफूली ॥ गहि मणिशंभ ! डिंभ डग डोलैं । कलवल वचन तोतरे बोलें । निरखत छवि झांकत प्रतिक्वैि । देत परमसुख पितु अरु अवै ॥ ब्रजजन देखत हिय हुलसाने । सूरश्याम महिमाको जाने ॥ ७॥राग नटनारायण ॥ पलिगई वालरूप मुरारि । पाँयैपजन रुनु झुन नचावति नंदनारि॥ कवहूं हरिको लाइ अंगुरी चलन सिखापति ग्वारि । कवहूं हिरदै लगाइ हितकरि लेति अंचलडारि ॥ कंबहुँक हरिको चित चूमति कवहूं गावति गारि । कबहुँ लै पाछे दुरावति ह्यां नहीं वनवारि ॥ कवहूं अंग भूपण वनावति राई लोन उतारि । सूर सुर नर सबै मोहे निरखि यह अनुहारि॥८॥ निलावल ॥ भावत हरिको बाल विनोद। श्याम राम मुख निरखि प्रमोदित रोहिणि जननी यशोदाआँगन पंकराग तनु सोभित चले नूपुर ध्वनि सुनि मन मोद।परमसनेह वढावन मातनि वकिरहरि बैठत गोद।अति श्रीचपल सकल सुखदायक निशि दिन रहत केलिरस श्रीदासुरश्याम अंबुज दल लोचन फिरि चितवत ब्रजवनिता कोद ॥ ९॥ वालविनोद आंगनकी डोलनि । मणिमय भूमि नंदके आलय वलि वलि जाउ तोतरी वोलनि।। कठुला कंठ रुचिर केहरिनख वज्रमोल बहुलाल अमोलनि वदनसरोज तिलक गोरोचन लट लटकन मधु पंकति लोलनि।लोनी कर आनन परसतहैं कछुक खाइ कछु लग्यो कपोलनि । कहि जन सूर कहांलो वरणौंधन्य नंद जीवन युग तोलनि॥११०॥रागविलावलगिहे अंगुरियातातकी नंद चलन सिखावत । अरवराइ गिरिपरतहैं करटेकि उठावत ॥ वारवार बकि श्यामसों कछु वोल वकावत । दुहुंचा द्वै देंतुली भई अतिं मुखछविपावत ॥ कबहुँकान्ह कर छांडि नंदपग दै करि गावताकवहूं धरणिपर बैठिकै मनमें कछु गावत ॥ कबहुं उलटिं चलें धामको घुटुरुनु करि धावत सुरश्याम मुख देखि महरमन हर्ष बढ़ावत ॥११॥धनाश्री ॥ कान्ह चलत पग दैदै धरनी।जो मनम अभिलाप करतही सो देखत नंदधरनी ॥ रुनुक झुनुक नूपुर वाजत पग यह अतिहै मन हरनी। वैठजात पुनि उठत तुरतही सो छवि जाइ न वरनी ॥ व्रजयुवती सब देखि थकित भई सुंदरताकी सरनी। चिरजीवो यशुदाको नंदन सूरदासको तरनी ॥ १२॥ राग विलावल ॥ चलत श्याम घन राजति पैंजन पग पग चारु मनोहर । डगमगात डोलत आंगनमें निरखि विनोद मोहे सुर मुनि नशअरु मन मुदित यशोदा जननी पाछे फिरत गहे अंगुरी कर । मनो धेनु तृण छोड़ि वच्छहित प्रेम पुलकि चित श्रवत पयोधर ॥ कुंडल लोल कपोल विराजत लटकन ललित लटुरिया भूपर। सुरश्याम सुंदर विलोकनि रहत वालगोपाल नंदघर ॥ १३॥रागगौरी ॥ भीतरतेवाहरलौं आवत । घर आंगन अति चलत सुगम भयो देहरीमें अटकावत ॥ गिरि गिरि परत जात नहिं उलंघी अति श्रम होत न धावत । अहुठपैर वसुधा सब कीन्ही धाम अवधि विरमावत ॥ मनहीमन बलवीर कहतहैं ऐसे रंगवनावत । सूरदास प्रभु अगणित महिमा भक्तनके मन भावत ॥ १४॥ रागधनाश्री॥ चलत देखि यशुमति सुखपावै।ठुमुकु ठुमुकु धरनी घर रेंगत जननी देखि दिखावै देिहरीलौ चलि जात वहरि फिी फिरि इतहीको आवै । गिरि गिरि परत धनत नहिं नांपत सुरमुनि सोचकरावै॥ कोटि ब्रह्मांड करत छिन भीतर हरत विलंब न लावै । ताको लिए नंदकी रानी नानारूप खिलावै ॥ तव यशुमति कर टेकि श्यामको क्रमक्रमकै उतरावैः। सूरदास प्रभु देखि देखि सुरं न रमुनि मन बुधिं भुलावै ॥ १६॥ राग भैरव ॥ सो. बल कहां गयो भगवान ॥ जिहिवल मीनरूप जल थाह्यो लियो निगम इति असुर पुरान । जेहिवल कमठपीठ पर गिरिधर सजलसिंधुनथि