पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२०९

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(११६) सूरसागर। कियो विमान ॥ जिहिबल रूप वराह दशनपर राखी पुहुमी पुहुप समान। जेहिवल हिरणकशिपु तनुफारयो भए भक्तको कृपानिधान ॥ जेहिबल वलि वंधन कार पठयो त्रैपद वसुधा करी प्रमान जडिबल विप्रतिलकदै थापे रक्षा आपुकरी विदमान ॥ जेहि बल रावणके शिरकाटे कियो विभीषण नृपति समान ॥ जहिवल जाम्बवंत मदमेव्यो जेहिबल ध्रुवविनती सुनि कान । सूरदास अब धाम देहरी चढ़ि न सकत हरि खरेई अयान ॥ १६॥ आसावरी ॥ देखो अद्धत अविगतिकी गति कैसो रूप धरयोहैहो।तीनलोक जाके उदर भवनसो सूपके कोन परयो हैहो। जाके नाल रुद्र ब्रह्मादिक सकल योग व्रत साधैहोतिनको नालछीनि ब्रजयुवती वांटि तगासोवाधैहै जाके मुख सनकादिक तप कियो सकल चतुरई ठानीहो । सो मुख चूमति महरि यशोदा दूध लार लपटानीहो॥विश्वभरण पोषन सब समरथ माखनकाज हरेहेहो ॥रूप विराट रोम प्रति कोटि सपलना माँझ परेहैहो ॥ जिन्हहि भुजा प्रहलाद उवारयो हिरणकशिपु तनुफारेहो । सो भुज पकार कहत ब्रज युवती ठाठेहोहु ललारेहो ॥ जाको ध्यान धरे सुर मुनिजन शंभु समाधि नटारीहो सो ठाकुरहै सूरदासको गोकुल गोप विहारीहो ॥ १७॥ आसावरी ॥ आनंद प्रेम उमगी यशोदा लालरी खिलावै ॥ शिव सनकादि शुकादि ब्रह्मादिक खोजत अंत नपावै ॥ गोद लिए हँसिकै हलरावत तोतरे वोल वोलावै ॥ देकरताल वजाववि गावति राग अनूपमल्हावै । कबहुँक करपल्लव आनि गहावति आँगन माँझ रिझावोमोहिलियो सुरव्योम विमानन रवि नहिं स्थहि चलावै। कबहुं कहिलके किलकै जननी मन सुखसिंधु बढावामोहिरही ब्रजकी युवती सव सूरदास यश गावै॥१८॥ रागकान्हो॥हरिहित मेरो माधैया । देहरी चढत परत गिरि गिरि करपल्लव जो गहत हैरीमैया। भक्ति हेतु यशुदाके आये चरण धरणिपर धारैया । जिनहि चरण छलिवो वलिराजा नखप्रसेद गंगाजो वहैया।जिहि स्वरूपमोहे ब्रह्मादिक कोटिभानु शशिउगया।सूरदास प्रभु इन चरणनकी मैं वलिमैं व लिजेया॥१९॥रागसहो। आंगन श्याम नचावहि यशोमति नंदरानी।तारीदैदै गावही मधुरी मृदुवानी पाँयन नूपुर वाजई कटिकिंकिर्ण कूजीनन्हीनन्ही एडिअन अरुणता फलविवन पूजायशुमति गान सुनै श्रवण तव आपुन गावै॥तारी बजावत देखहि पुनि तारी बजावै॥केहरि नख उरपर सुठि सोभा कारी। मानौ श्याम घन मध्यमे नौ शशि उजियारी॥गभुआरे शिर केसह ते बधू सँवारे । लटकन लटकै भालपर विधु मधि गणतारे ॥ कंठुला कंठ चिबुक तरे मुख हँसनि बिराजै । खनन मीन शुक आनिकै मानौ परेदुराजे ॥ यशुमति सुतहि नचावई छवि देखत जिअतोसूरदास प्रभुश्यामके सुख टरत न हियते ॥२०॥ विलावल । त्यो त्यो नाच्चोरी मनमोहन धाम मधुर सुर होई । तैसियै किकिनि हार पग नेपुर रसहि मिले सुरदोई ।। कंचनको कठुला मनमोहत तिन वचनहा विचपोई निरखि निराखि सुख नंद सुवनको सुर मन आनंद होई ॥ देखत बनै कहत नहिं आवै उपमा को नहिं कोई । सूर भवनको तिमिर नशायो निरखत जननि यशोई ॥२१॥ राग आसावरी ॥ जवते मैं खेलत दिखो आंगनरी यशुदाको पूतरी । तवते गृहसों नाहिन नातौ टूट्यो जैसो काचो सतरी॥ अतिविसाल वारिजदल लोचन राजति काजर रेखरी । इच्छासौं मकरंद लेत मनौ अलिगोकुलके वेषरी ॥ श्रवणन नहि उपकंठ रहतहै अरुबोलत तुतरातरी। उमगे प्रेम नैन मगनबैक कापै रोके जातरी॥ दमकत दोउ दूधकी दतिया जग मग जग मग होतरी । मानौं सुंदरता मंदिरमें रूपर तनकी ज्योतिरी॥ सूरदास देखौ सुंदरमुख आनंदउर नसमाइरी।मानौं कुमुद कामनापूरणरइदुहि पाइरी ॥ २२ अद्भुत एक चितयो हौंसजनी नंदमहरके आंगनरी । सोमैं निरखि अपनपो खोयो