पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१४

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दशमस्कन्ध-१० (१२१) गोपी ग्वाल करत कौतुहल घर पर नेत वधैया। मणि खंभन प्रतिविव विलोकत पुनि नवनीत कुँवर हरि पइआ॥ नंद यशोदाजीके उरते इह छवि अनत न जइआ॥ सूरदास प्रभुतुमरे दरशको चरणनकी वलिगइआ॥५४॥ सारंग ।। मैया मोहिं बड़ो करिवेरी । दूध दही घृत माखन मेवा जो मांगों सो दैरी॥कछू हवस राखै जिन मेरी जोइ जोइ मोहि रुचैरी ॥रंगभूमि में कंस पछारौं कहाँ कहाँ लौमैरी । सूरदास स्वामीकी लीला मथुरावासी खोजेरी ॥ सुंदर श्याम हंसत जननीसों नंदवबाकी सौंरी ॥ ५५ ॥ रामकली ॥ हरि अपने आगे कछु गावत । तनक तनक चरणनसों नाचत मनही मनहि रिझावत ॥ बाहउचाइ काजरी धौरी गैयन टेरि बुलावत कबहुँक पावा नंद बुलावत कबहुँक घरमें आवत ॥ माखन तनक आपने करले तनक बदनमें. नावत । कबहुँ चितै प्रतिक्वि खंभमें लवनी लिए खवावत ॥ दुरि देखत यशुमति यह लीला हर्ष अनंद वढावत । सूरश्यामके वालचरित नितही नित देखत भावत ॥५६॥ विलावल ।। आज सखी हौं प्रात समयदधि मथन उठी अकुलाइ । भरिभाजन मणिशंभ निकट धरि नेत लियो करजाइ । सुनत शब्द तेहि छिन समीप मे महरि हँसिं आए धाइ । मोहे बालविनोद मोदकार नयनन नृत्य देखाइ ॥ चितपनि चलनि हरयौ चित चंचल चितरही चितलाइ। पुलकित तब प्रतिविंव देखि करि सवही एक सुभाइ ॥ माखन पिंड विभाग दुहूँकर आपत मुँह मुसुकाइ । सूरदास प्रभुता सुतके सुख सके न हृदय समाइ ॥३७॥ वलि बलि जाउँ मधुर सुर गावहु । अबकी बार मेरे कुँवर कन्हैया नंदहि नाचि देखावहु ॥ तारीदेहु आपने करकी परमप्रीति उपजावहु । आनयंत्र ध्वनि मुनि डरपत कत मोभुज कंठ लगावहु ॥ जिनसंका जियकरो लाल मेरे काहेको भरमावहुं वांह उचाइ कालिकी नाई धौरी धेनु बुलावहु । नाचहुनेकु जाउँ पलि तेरी मेरी साथ पुरावहु ॥ रत्न जटित किंकिणि पगनूपुर अपने रंग वजावहु । कनक खंभ प्रतिविवत शिशुइक लौनी ताहि खवावहु ॥ सूरश्याम मेरे उरते कहुँ टारे नेक नभावहु ॥१८॥राग सारंग ॥ कान्ह बलिजाउ ऐसी आरि नकीजै। जोइजोइ भाव सोइ सोइ लीजै ॥ कहत यशोदा रानी। कोखिझवै सारंगपानी ॥ मेरे जो लाल खिजावे । सो अपनो कियो भलो पावै ॥ तिहिदेही देश निकारो । ताको ब्रजनाहि नगारो॥ अति रिसही ते तनु छीजै । मुठि कोमल अंग पसाजै ॥ वर्जत वर्जत विरुझाने । करि क्रोध मनहि अकुलाने ॥ धरत धरणि धर लोटे । माताको चीर नखोटे॥अंग आभूपण सब तोरे लवनी दधि भाजन फोरे। देखितप्तजल तरसै । यशदाके चरणन परसै ॥ महार वाह गहि ने। तव तेल उबटने साने । तब गिरत परत उठि भागे। कहूं नेक निकट नहिं लागे । तब नंदपरनि चुचकारे । आवहु बलि जाउँ तुम्हारे ॥नहिं आवहु तो भले लाला । पुनि जानहुगे मदन गोपाल । तुम मेरी रिस नहिं जानौ । मोको नहिं तुम पहिचानौ ॥ मैं आज तुम्हें गहिवांधौं । हाहा करि करि अनुराधौं । वावानंद उतहिते आए । कौने हरि अतिहि खिझाए । मुख चूमि हरखि लैआए । यशुमति पै पहुँचाए ॥ मोहन कत खिझत अयानी । लिये लाइ हिये नंदरानी ॥ क्योंहूं जतन जतन करि पाए । तव उवटन तेल लगाए ॥ तातोजल आनि समोयो । अन्हवाइ दियो मुख धोयो । अति सरस वसन तन पोंछे । लेके मुखं कमल अंगोछे ॥ अंजन दोउ हग भारि दीनों । ध्रुव चारु चखोडा कीनों ॥ अंग आभूषणजे वनाए लालहि क्रम क्रमले पहिराए ॥ ऐसी रिसि नकरो मेरे कान्हा । अव खाहुकुंवर कछु नान्हा॥तुतरात कहयो काहेरी । जो मोहिं भावै सो दैरी ॥जोइजोइ भावे मेरे प्यारे। सोइसोइ देहौजु ललारेकह्योहै