पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१५

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(१२२) सूरसागर। सिरावन सीराकछु हठन करौ बलवीरा।सद दधि माखन दै आनीतापर मधु मिश्रीसानीखोवामें मधुर मिठाई । सो देखत अतिरुचिपाई॥कछु बलदाऊको दीजै । अरु दूधअधावटपीजै ॥ सब होर धरीहै साढी । लैउपर उपरते काढी अति प्योसरसरिस वनाईतेहि सोंठ मिरच रुचिताईदूध वर दहीवोरी । सो खात अमृत इक कोरी। सुठि सरस जलेवी वोरी । जेहि जेवत रुचि नहिं थोरी अरु खुरमासरस सँवारे। ते परसि धरे न्यारेसंकरपालेसद पागे। ते जेवत परमसभागोसेवलाड़ रुचि रसवारे । जे मुख मेलत सुकुमारे॥ मुतिलाडूहैं सुठि मीठे ॥ वै खात न कबहुँ उवीठे॥खीर लाडूलै गए नाए। ते करि बहु जतन वनाए।गोझावह पूरन पूरे। भरि भरि कपूररस चूरेअरु तैसिय गाल मसूरी । जोखातहि मुख दुख दूरी ॥ अरुहेसमि सरस सँवारी। अति खात परमसुखकारी। पापर वरणे नाहिं जाहीजहि देखत अतिसुख पाही॥मालपुवामधुसाने । ते तुरत तपत करि आने संदर अतिसरस अँदरसे । तेघृत मधु दधि मिलि सरसे ॥ घेवर अति घिरत चभोरे । लै खांड उपर तर वोरे॥ माधुरि आत सरस सजूरी । सदपरसिधरी घृत पूरी।। जव पूरी सुनी हरि हरख्यो।तब भोजन पर मन करण्यो। सुनि तुरत यशोदा ल्याई । अति रुचि समेत हरि खाई ॥ वलदाऊ को टेरि बुलाए। यह सुनि हलधर तहाँ आएगोषटरस परकार मॅगाए ॥ जेवराण यशोदा गाए। मनमोहन हलधर वीरा । जेवत रुचिराख्यो सीराशीतलजल लियो मँगाई। भरि झारी यशुमति ल्याई।अच वत तब नयन जुडाने। दोउ हरषि हरषि मुसकाने ॥ हँसिजननी चुरु भरवाए। तव कछु कछ मुख पखराए ॥ तबवीरी तनक मुख नाए। अतिलाल अधरदै आए ॥ तब सूरदास वलिहारी ॥ माँगत कछु झूठनि थारी ॥ हरितनक तनक कछुखाए। जूठनि सव भक्तनि पाए ॥१९॥ रागधनाश्री पाहुनी करिदै तनक मह्यो। हौं लागी गृहकाज रसोई यशुमति विनय कह्यो । आरि करै मनमो हन मेरो अंचल आनि गह्यो । व्याकुल मथति मथनियां रीती दधि ढरकि रह्यो । माखन जात जानि नंदरानी सखिन सम्हारि कह्यो। सूरश्याम मुख निरखि मगन भई दुहुनि सकोच सह्यो। ६०॥आसावरीायशुमति जवहि कह्यो अन्हवावन रोइगए हरि लोटतरी। लेत उबटनौ लै आगे दधि कहि लालहि चोटत पोटतरी॥ मैं बलिजाउँ न्हाउ जिनि मोहन कत रोवत विनकाजैरी । पार्छ धरि राखौ छपाइकै उवटन तेल समाजैरी॥ महरि बहुत विनती करि राखति मानत नहीं कन्हाईरी सूरश्याम अतिही विरुझाने सुर मुनि अंतन पाईरी ॥६१ ॥ अथ चंद्रमस्ताव । कान्हरो ॥ ठाढी अजिर यशोदा अपने हरिहि लिये चंदा देखरावत । रोवत कत वलिजाउँ तुम्हारी देखौधौं भरि नयन जुडावत ॥ चितरहे तब आपुन शशितन अपने कर लै लै जु बतावत । मीठो लगत किधौं यह खाटौ देखत अति सुंदर मनभावतमनमनही हरि बुद्धि करतहैं माताको कहि ताहि मँगावत। लागी भूख चंद मैं खैहौं देहु देहु रिसकरि विरुझावत ॥ यशुमति कहत कहा मैं कीनौ रोवत मोहन अतिदुखपावत । सूरश्यामके यशुदा बोधति गगन चिरैयां उडत लखावत ॥ ६२॥ कान्हरो। किहिविधि करि कान्है समुझैहों। मैंही भूलि चंद्र दिखरायो ताहि कहत मोहिंदै मैंखैहौं।अनहोनी कहुँ होत कन्हैया देखी सुनी नवात । यहतौ आहि खिलौना सबको खान कहत तेहि तात ॥ यहै देत लवनी नित मोको छिन छिन सांझ सवारे । वार वार तुम माखन मांगत देउ कहांते प्यारे देखतरही खिलौना चंदा आरि न करौ कन्हाई ॥ सूरश्याम लियो महरि यशोदा नंदहि कहत बु झाई॥६३ ॥ धनाश्री ॥ आछे मेरे लालहौ ऐसी आरि नकीजैमधु मेवा पकवान मिठाई जोइ भाव सोइ लीजै ॥ सदमाखन घृत दह्यो सजाये अरुं मीठो पयपीजै । पालागों हठ अधिक करो जिनि