पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१७

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(१२४) सूरसागर। जननि भ्रमभारी ॥७१॥विहागरो। नंदनंदन तुम सुनहु कहानी । पहिली कथा पुरातन सुन सुत जननी पास मुखवानी ॥ रामचंद्र राजा दशरथसुत जनकसुता ताके गृहरानी। कहिपंचतत्त्व अरु पंचवटी वन छांडि चले रजधानी ॥ तहां वसत सीता हरलीनो रजनीचर अभिमानी। लछिमन धनुष देहु करि उठि हरि यशुमति सूर डरानी ॥७२॥केदागायशुमति मनमें यहै विचारति । झझ कि उठ्यो सोवत हरि अवहीं कछु पढ़ि पढ़ि तनु दोष निवारति ॥ खेलतमें कहुँ डीठि लगाई लैलै राई लोन उतारति । सांझहिते मेरो विरुझान्यो चंदहि देखिकरी अतिआरति ॥ वार वार कुलदेव मनावति दोउ करजोरि शिरहिलैधारति । सूरदास यशुमति नंदरानी निरखिवदन त्रयताप विसार ति ॥७३॥ नहिन जगाइ सकति सुनिसोवावत सजनी। अपने जान अजहुँ कान्ह मानत हैं रजनी। जब जब हौं निकट जाति रहति लांगी लोभा। तनुकी गति विसरिजाति निरखत मुखसोभा ॥ चननिको बहुत करति साजति जिय ठाढी । नैननि विचार परति देखत रुचि वाढी ।। इहिविधि वदनाविंद यशुमति मनभाव। सूरदास सुखकी राशिकहत न वनिआवै ॥७३॥विलावलाजागिये ब्रजराज कुँवर कमल कुसुम फूले । कुमुद वृंद सकुचत भए भ्रंगलता भूले ॥ तमचुर खग रौर सुनहु बोलत वनराई ॥राँभति गोखिरकनमें बछराहितधाई। विधुमलीन रविप्रकाश गावत नर नारी । सूरश्याम प्रातउठौ अंबुज करधारी ॥७४ ॥ रामकली। प्रात समय उठि सोवत हरिको वदन उपारयो नंद । रहि न सकत देखनको आतुर नैन निसाकेद्वंद ॥ स्वच्छ सेजमें ते मुख निकसत गयो तिमिर मिटि मंद । मानौं मथि सुरसिंधु फेन फटि दरश दिखाईचंद.॥ धायो चतुर चकोर सूर सुनि सव सखि सखा सुछंद ॥ रही न सुधि शरीर धीरमति पिवत किरन मकरंद ॥ ७९ ॥ भोरभए निरखत हरिको मुख प्रमुदित यशुमति हरपित नंद । दिनकर किरन नलिन ज्यों विकसत उर उपजत आनंद ॥ बदन उघारि निहारत जननी जागहु बलिगई आनंद कंद । मानहु मथत सुर सिंधु फेनफटि दई देखाई पूरन चंद ॥ जाको यश ब्रह्मादिक मुनिजन नेति नैति गावत श्रुति छंद । सो गोपाल ब्रजके सुाने सूरज प्रगटे पूरण परमानंद ॥ ७६॥ ललित जा गिये गुपाल लाल आनंद निधि नंदवाल यशुमति कहै वार वार भोर भयो प्यारे। नैनकमलसे विशाल प्रीति वापिका मराल मदन ललित वदन ऊपर कोटि वारिडारे । उगत अरुनविगत सर्वरी ससंकि किरनिहीन दीन दीपक मलीन छीन दुति समूह तागमनहु ज्ञान घनप्रकाश वीतेसव भवविलास आश त्रास तिमिर तोष तरनि तेजजारे। वोलत खग मुखर निकर मधुर वै प्रतीति सुनहु परम प्राण जीवन धन मेरे तुम वारे । मनौ वेद वंदी मुनि सूत वृद मागधगण विरद वदत जैजैजैतकैट भारे ॥ विगसत कमलावलीय चलि प्रफंद चंचरीक गुंजत कलकोमल ध्वनि त्यागि कंज न्यारे । मानौ वैरागपाइ सकल कुलग्रह विहाइ प्रेमवंत फिरत भृत्य गुनत गुन तिहारे॥सुनत वचन प्रियरसाल जागे अतिशय दयाल भागे जंजाल विपुल दुख कटम टारे। त्याग भ्रमफंद दद निरखिके मुखार्विद सूरदास अतिअनंद मेटे मदभारे ॥ ७७॥ प्रातभयो जागो गोपाल । नवल सुंदरी आई बोलत तुमहि सबै ब्रजवाल ॥ प्रगटो भानु मंद उडुपति भयो फूले तरुन तमाल। दरशनको ठाढी ब्रजवनिता ल्याई कुसुम गुंज वनमाल ॥ मुखहि धोइ सुंदर बलिहारी करहु कलेऊ मोहन लाल । सूरदास प्रभु आनंदके निधि अंबुजलोचन नयन विशाल ॥ ७८ ॥ ललित ॥ जागो जागौहो गोपाल । नाहिन इतो सोइये सुनु सुत प्रातसमय शुचिकालादिन विगसत मनौ कमलको शंप्रति छवि ज्यों मधुपनके माल॥फिरि फिरि निरखि निरखि छिन छिन छिन सब गोपनुके वालातो %3-