पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२१९

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(१२६) सूरसागर। | वत घोप बालक वृंद ॥ तृषितहै सब दरश कारन चतुर चातकदास । वरपि छवि नव वारि धरही। हरहु लोचन प्यास ॥ विनय वचन सुने कृपानिधि चले मनोहर चाल । ललित लघु लघु चरन कर उर बाहु नयन विशाल ॥ अजिरपद प्रतिविव राजत चलत उपमा पुंज । प्रतिचरण मानहु हेमवसुधा देत आसन कंज। सूर प्रभुकी निरखि सोभा रहे सुर अवलोकि शरद चंद चकोर माना रहे थकित विलोकि ॥८९ ॥ धनाश्री ॥ खेलनको हरि दुरिगयो । संग संग धावत डोलत हैं कहां धौं बहुत अवेर भयो ॥ पलकओट भावत नाहि मोको कहा कहाँ तोको बात । नंदहि तात तात कह बोलत मोहि कहतह मात ॥ इतनी कहत श्यामघन आए ग्वाल सखा सब चीन्हें । दौरिजाइ उरलाइ सूर प्रभु हरषि यशोदा लीन्हें।।९०॥ विहागरो॥ खेलन दूरि जात कित कान्हा । आज सुन्यो बन हाऊ आयो तुम नहिं जानत नान्हा ॥इक लरिका अबही भजिआयो बोलि वुझावह ताहि । कान तोर वह लेत सवनके लरिका जानत जाहि ॥ चलहु वेग सवेरे जैये भनि अपने अपने धाम । सूरदास यह बात सुनतही वोलि लिए वलराम।।९१॥ नेतश्री ॥ दूरिखेलनजनि जाहु लला वन मेरे हाऊ आयोहै । तब हँसि बोले कान्हरि मैया इनको किनहि पठायोहै।अब डरप- त सुनि सुनि येवा कहत हँसत बलदाऊ । सप्तरसातल शेष सनरहे तबकी सुरत भुलाचारिवेद लेगयो शंखासुर जलमें रहे लुकाऊ । मीनरूप धरिकै जब मारयो तबहिं रहे कहां हाऊ ॥ मथि समुद्र सुर असुरनके हित मंदर जलधि धसाऊ । कमठरूप धरि धरनि पीठपर सुखपायो सहिराऊ जब हिरणाक्ष युद्ध अभिलाष्यो मनमें अति गरवाऊ। परिवाराहरूपरिपुमारयोले क्षितिदंत अगाऊ विकटरूप अवतार धरयो जवसो प्रहलादहि नाजाधरि नरसिंह जब असुर विदारयो तहां नदेख्यो हाजावावनरूप धरयो बलि छलिकै तीनपरग वसुधाऊोश्रमजल ब्रह्म कमंडलु राख्यो दरशचरण परसाऊ ॥ मारयो मुनि बिनही अपराधहि कामधेनु लेआऊ ॥ इकइस वार निछत्र तब कीनी तहां न देखहाऊ॥शूपनखा तारका मारी हिमकुल सहित सोवहाऊ | सिधुसेतु बांध्यो पषाणसों तहाँ न देखेहाऊ ॥ राम रूप रावन जबमारयो दशशिर बीस भुजाऊ। कजराय छार जवकीनी त हाँ न देखे हाऊ। नृपति भीमसों युद्ध परस्पर तहाँ वह भाव वताऊ। तुरतचीरदै टूककियो धरि ऐसे त्रिभुवन राऊ। यमुना के तट धेनु चरावत तहाँ सघनवन झाऊ॥ पैठिपताल व्यालगहिनाथ्यो तहाँ न देखे हाऊ ॥ नृपति भीमसों युद्ध परस्पर तब वह भाव बताऊ। तुरत चीर द्वैटूक कियो धरि ऐसे त्रिभुवन राऊ ॥ माटीके मिस वदन विगारयो जब जननी डरपाऊं। मुखभीतर त्रैलोक दिखा यो तबउ प्रतीत नआऊ ॥ भक्तहेतु अवतार धरे सब असुरन मारि वहाऊ । सूरदास प्रभुकी यह लीला निगम नोति नितगाऊ ॥९२॥रामकली।। यशुमति कान्हहि यह सिखावति । सुनहु श्यामअव वडे भए तुम चूंची पिवन छुडावति ॥ ब्रजलरिका तोहि पीवत देखें हसत लाज नहिं आवति । जैहैं विगरि दांतह आछे ताते कहि समुझावति ॥ अजहुँ छोडि कोकरि मेरो ऐसी वातन भावति सूरझ्याम यह सुनि मुसिकाने अंचल मुखहि लुकावति ॥ ९३॥ नंद बुलावतहैं गोपाल । आवहु वेग वलैया लेहाँ सुंदर नैन विसाल ॥ परस्योथार धरयो मग चितवत बेगि चलो तुम लाल भात सिरात तात दुखपावत क्योंनचलौ ततकाल ॥ हौं वलिजाऊं नान्हे पाइनि की दौरि दिखावहु वाल । छाँडिदेहु तुम ललित अटपटी यहगति मंद मराल ॥ सो राजा जोआगमदौरे सूर सुभौन उताल । जो है वलदेव पहिलेही तो हसिह सब ग्वाल ॥९॥सारंगा जैवत कान्ह नंद इकठोर। कछुक खात लपटात दुहूंकर वालकहैं अतिभोरे । वडोकौर मेलत मुख भीतर मिरिच दशन |