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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२२

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दशमस्कन्ध-१० (१२९) पलोटत पाँई । मधुरे सुर गावत केदारो सुनत श्याम चितलाई ॥ सूरझ्याम प्रभु नंदसुवनको नीदगई तब आई ॥ १३ ॥ राग सारंग ॥ खेलन जाहु वाल सब टेति ॥ यह सुनि कान्ह भए अति आतुर द्वारे तन फिरि हेरत ॥वार वार हरि मातहि कहि कहि मेरीचौगान कहांहै। दधि मथनीके पाछे देखो ले मैं धरीतहाँहै। लै चौगान वटाकर आगे प्रभु आए जव वाहर। सूरश्याम पूंछत सब ग्वालन खेलोगे केहि ठाहर ॥ ३४ ॥ खेलत वन घोप निकास । सुनह श्याम तुम चतुर शिरोमणि इहाहै घरपास। कान्ह हलधर वीर दोऊ भुजावल अतिजोर । सुवल श्रीदामा और सुदामा वै भए इक ओर । और सखा वटाइ लीन्हे गोप वालक बंद । चले बजकी खोर खेलन अति उमंग नंदनंद ॥वटा धरणी डार दोनो लेचले ढरकाइ । आप अपनी बात निरखत खेल जम्यो वनाइ।।सखा जीतत श्याम जाने तव करी कछु पेल। सूरदास तव कहत सुदामा कौन ऐसो खेल ॥ १६॥ खेलतमें कोकाको गोसैंयां । हरि हारेजीते श्रीदामा वरवसही कत करत रिसैयां ॥ जाति पांति हमते कछु नाहिन वसत तुम्हारी छहियां । अति अधिकार जनावत याते अधिक तुम्हारेहैं कछु गइयां ॥ रुहठि करै तासों को खेल रहे पौढि जहां तहां सब ग्वैयां सूरदास प्रभु खेलोई चाहत दाँव दवो करि नंद दोहैयां ॥ १६॥ कान्हरो ॥ आवहु कान्ह सांझकी विरियाँ गाइन मांझ भएहौ ठगढ़े कहत जननि यह बड़ी कुवेरियां ॥ लरिकाई कहुँ नेकन छोड़त सोइ रहो सुथरी सेजरियां। आए हरि यह बात सुनतही धाइ लिये यशुमति महतरियां ॥ लै पौढ़ी आंगनही सुतको छिटकि रही आछी उजियरियां। सूरदास कछु कहत कहतही वसकरि लिए आइ नीदरियां ॥ ॥१७॥ आँगनमे हरि सोइ गयोरी । दोउजननी मिलिक हरुये करि सेज सहित तव भवन लियो री॥नेकनहीं घरमें बैठतहै खेलहिके अब रंग रएरी॥इहिविधि श्याम कबहुँ नहिं सोए बहुत नीदके वशहि भएरी। कहत रोहिणी सोवन देहु न खेलतं दौरत हारि गएरी। सूरदास प्रभुको मुख निरखत .यह छवि नित नित होत नएरी ॥१८॥ अथ ब्राह्मणको प्रस्ताव। धनाश्री ॥ महरानेते पांडे आयो॥ ब्रज घर पर बूझत नंदरावर पुत्र भयोमुनिकै उठि धायो॥ पहुँच्यो आइ नंदके द्वारे यशुमति देखिनंद बढायो।पाँय धोइ भीतर वैठायो भोजनको निज भवन लिपायो। जो भाव सोभोजन कीजै विप्र मनहि अति हर्ष बढायो । बडी वयस विधि भयो दाहिनोधनि यशुमति ऐसो सुत जायो॥ धेनु दुहाइ दूध लैआई पांडे रुचिकै खीर चढ़ायो। घृत मिष्टान खीर मिश्रित करि परुसि कृष्ण हित ध्यान लगायो। नैन उपारि विप्र जो देखै खात कन्हैया देखन पायो । देखो आइ यशोदा सुत कृत सिद्ध पाक इहि आइ जुठायो । महरि विनय दोऊ कर जोरे घृत मिष्टान पय बहुत मँगायो । सूर श्याम कत करत अचगरी वारवार ब्राह्मणहि खिझायो ॥ १९ ॥ रामकली। पांडे नहिं भोग लगावन पावै । कार करि पाक जबै अर्पतहै तवहिं तबहिं छावै ॥ इच्छा कार मैं ब्राह्मण न्योत्यौं तू गोपाल खिझावै । वह अपने ठाकुरहि जेवावत तू ऐसे उठि धावै ॥ जननी दोप देहु जनि मोको करि विधान पहु ध्यावै । नैन मूदि कर जोरि नामलै वारहि बार बुलावै ॥ कह अंतर क्यों होइ भक्तको जो मेरे मन भावे । सूरदास बलिहौ ताकी जो जन्म पाइ यश गावै ॥२०॥ विलावल ॥ सफल जन्म प्रभु आजु भयो । धनि गोकुल धनि नंद यशोदा जाके हरि अवतार लयो॥प्रगट भयो अब पुण्य सुकृत फल दीनबंधु माहि दरशदियो। बार वार नंदके आंगन लोटत द्विज आनंद भयो। मैं अपराध कियो पिन जाने को जान कहिँ भेषजयो।। सूरदास प्रभु भक्त हेत वश यशुमति हित अवतार लयो२१॥ रागधनाश्री॥अहो नाथ जेई जेई तेरेशरण आए तेई तेई भए पावन । महापतित कुलतारन एक नाम