पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२४

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- देशमस्कन्ध-१० (१३१) मेरे मोहन वलहि न देवहु वाटी । सूरदास नंदलेहु दोहनी दुहहु लालकी नाटी । ॥ अथ माखनचोरी प्रथम ॥ गारी ॥ मैयारी मोहिं माखन. भावे । जो मेवा पकवान मिठाई मोहिं नहीं रुचि आवै ॥ ब्रज युवती इक पाछे ठाढ़ी सुनति श्यामकी वात । मन मनं कहति कबहुँ मेरे घर देखों माखन खात । वैठे जाइ मथनियांके ढिग मैं तब रही छिपानी। सूरदास प्रभु अंतर्यामी ग्वालि मनहिंकी जानी ॥३१॥ गौरी ॥ गए श्याम तिहि ग्वालिनिके घर। देख्यो जाइ द्वार नहिं कोई इत उत चितै चले घरभीतर ॥ हरि आवत गोपी तब जान्यो आपुन रही छिपाइ । सूने सदन मथनियां के ढिग वैठिरहे अरगाइ । माखन भरी कमोरी देखी लैलै लागे खान। चितै रहत मणि खंभ छाँहतन तासों करत न आन॥प्रथम आजु मैं चोरी आयों भल्यो वन्यौहै संगु । आपुनखात प्रतिबिंब खवावत गिरत कहत का रंगु॥ जो चाहो सव दे कमोरी अति मीठगे कत डारत । तुमहि देखि मैं अति सुखपायो तुम जिय कहा विचारत ॥ सुनि सुनि वात श्यामसुं दरकी उमॅगि हंसी अजनारि । सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि मुख तव भजि चले मुरारि ।। ३२ ॥ फूली फिरति ग्वालि मनमेरी। पूछति सखी परस्पर वात पायो परचो कछुकहै तरी॥पुलकित रोम रोम गद गद मुख वाणी कहत न आवै । सो कहा आहि सो सखीरी मोको क्यों न सुनावै । तनु न्यारो जो एक हमारो हम तुम एकै रूप । सूरदास कहै ग्वालि सखीसों देख्यो रूप अनूप ॥ ॥राग गजूरी आजु सखी मणि खंभ निकट हरि जहां गोरसको गोरी । निज प्रतिविंच सिखावत ज्यों शिशु प्रगट करै जिनि चोरी ॥ आध विभाग आजते हम तुम भली वनीहै जोरी । माखन साहु कितीह डारतहो गडि देहु मति भोरी।हिसा न लेहु सवै चाहतही इहै वात है थोरी।मीठो अधिक परम रुचि लागै देहाँ काढ़ि कमोरी प्रेम उमॅगि धीरजु न रहयो तव प्रगट हँसी मुख मोरी।सूरदास प्रभु सकुचि निरखि मुख भजे कुंज गहि खोरी ॥३३॥ बिलावल ॥ प्रथम करी हरि माखन चोरी। ग्वालिनि मन इच्छा कार पूरण आपु भजे हरि विजकी खोरी ॥ मनमें इह विचार करत हार ब्रज घर पर सब गाऊं । गोकुल जन्म लियो सुखकारण सवकर माखन खाऊं । वाल रूप यशुमति मोहिं जानै गोपिन मिलि सुख भोगू ॥ सूरदास प्रभु कहत प्रेमसों घरोरे ब्रज लोगू ॥३४॥ रामकली ।। करत हरि ग्वालन संग विचार । चोरि माखन साहु सब मिलि करौ वालविहार यह सुनत सव सखाह भली कही कन्हाई । हँसत परस्पर देत तारी सौंह कार नंदराई ।। कहां तुम यह बुद्धि पाई श्याम चतुर सुजान । सूर प्रभु मिलि ग्वाल वालक करतहैं अनुमान ॥३९॥ गौरी ॥ सखा सहित गए माखन चोरी । देख्यो श्याम गवाक्ष पंथदै गोपी एक मथति दधि भोरी। हरि मथानी धरी माटते माखन होउतरात । आपुनगई कमोरी मांगन हार पाई हूघात ॥ पैठे सखनसहित वरसूने माखन दधि सब खाई । ठूछीछांडि मटुकिया दधिकी हँसि सब वाहिर आई ॥आइ गई कर लिये मटुकिया परते निकरे ग्वाल । माखन कर दधि मुख लपटानो देखि रही नंदलाल ॥ काहे आज ब्रज वालक संगले माखन कर दधि मुख लपटानो। देखत ते उठि भने सखा एक इहि वर आइ पिछानो ॥ भुन गहि लियो कान्ह इक वालक निकरे ब्रजकी खोरि । सूरदास प्रभु ठगिरही ग्वालिनि मनु हरि लियो अजोरि॥३६॥ गौरी ॥ चकित भई ग्वालिनितन हेरयो । माखन छोडि गई मथि सहि तवते कियो अवेरचो॥ देखोजाइ मटुकियारीती मैं राख्यो कहुँ हेरी । चकृत भई ग्वालिनि मन अपनें ढूँढति घर फिरि फेरी ॥ देखति पुनि पुनि घरके वासन मनहरि लियो गोपाल । सूरदास रसभरी ग्वालिनी जान हरिके ख्याल ॥३७॥ पिलावळ ॥ ब्रज घर -