पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१३२) सूरसागर। woman- । घर प्रगटी यह बात । दधि माखन चोरीकै लैहरि ग्वाल सखा संग खाताव्रजवनिता यह सुनि मन हर्षों सदन हमारे आ। माखन खात अचानक पावै भुज भरि उरहि छुवा । मनही मन अभिलाप करत सब हृदय करत यह ध्यान। सूरदास प्रभुको घरते लै देहौ माखनखान ॥३८॥ रागसारंग ॥ गोपालहि माखन खानदै।सुनुरी सखी कोऊ जिनि बोले वदन दही लपटानदै।।गहिवहियां हौं लेके जैहों नयनन तपति बुझानदै । वापै जाइ चौगुनौ लेहौं मो यशुमति लौं जानदै।।तुम जानति हरि कछुव न जानत सुनत मनोहर कानदै । सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को राखोंगी तन मन प्रानदै ॥३९॥ कान्हरो ॥ चली ब्रज घर घरनि यह बात । नंदसुत संग सखालीने चोरि माखन खात ॥ कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ । कोउ कहति मुहि देखि द्वारे गयउ ताहि पराइ॥ कोउ कहति केहि भांति हरिको देखों अपने धाम। हेरि माखन देइँ आछो खाहि जितनो श्याम । कोऊ कहति मैं देखिपाऊं भरि धरौं अँकवारि॥ कोऊ कहति मैं वाधिराखौं को सकै निरवारि ॥ सूर प्रभुके मिलन कारन करत बुद्धि विचार । जोरि कर विधिको मनावति पुरुष नंद कुमारा ॥४०॥ कान्हरो । ग्वालनि घर गये जानि सांझकी अँधेरी ॥ मंदिरमें गए समाइ श्यामल तनु ल खि नजाइ देह गेह रूप कहौ को कहै निवेरी ॥ दीपक गृह दान करचो भुजा चारि प्रगट धरयो देखत भई चकृत ग्वालि इतं उतको हेरी श्याम हृदय अति विसाल माखन दधि विदुजाल मनमो यो नंदलाल वालहि बूझेरीयुवती अति भई विहाल भुज भरिदै अंकमाल सूरज प्रभु अति कृपाल डारचोमन फेरी॥करसों करलै लगाइ महरि पैगई लिवाय आनंद उरमें नसमाय वातहै अनेरी ॥ ४११ कल्याण, यशमति धौं देखि आनि आगढ़ ले पिछानि वहियांगहिल्याई कुँवर और कोकितेरो अबलों मैं करी कानि सही दूध दही हानि अजहूं जिय जानि मानि कान्हहै अनेरो ॥ दीपक मैं धरयो वारि देखत भुज भए चारि हारी हाँ धरति कति दिन दिनको झेरो। दिखियत नहिं भवन मांझ तैसोई तनु तैसिये सांझ छलसों कछु करतु फिरतु महरिको जठेरो ॥ गोरस तनु छीटरही सोभा नहिं जात कही मानौ जल यमुन विव उडगन पथुफेरो। उरहनो दिन देउ काहि काहेतू इत नो रिसाइ नाहीं ब्रजवास सासु ऐसी विधि मेरो॥ गोपी निरखति सुमार यशुमति कोहै कुमार भूली भ्रम रूपमानौ आनि कोऊ हेरो।मनमन विहँसत गोपाल भक्तपाल दुष्टशाल जानेको सूरदास चरित कान्ह केरो॥४२॥ गौरी देखि फिरे हरि ग्वालि दुवा।तब इक बुद्धिरची अपने मन भीतर सांझ परे पिछवारे । सूने भवन कहूं कोउ नाही मनौ याहीको राजू ॥ भांडे धरतु उघारतु मूंदतु दधि माखनके काजूारैनि जमाइधरयो सो गोरस परयो श्यामके हाथ । लैलै खात अकेले आपुन सखा नहीं कोउ साथआहट सुनि युवती घरआई देख्यो नंदकुमार ॥ सुरश्याम मंदिर आँधियारे निरखत बारंबार ॥४३॥ अँधियारे घर श्याम रहे दुरि । अवहीं मैं देख्यो नंदनंदन चरित भयो मनही मन झुरि॥पुनि पुनि चकृत होति अपने जीकैसी है यह वातामटुकी के ढिगबैठि रहे हरि करें आपनी घात ॥ सकल जीउ जल थलके स्वामी चींटी दई उपाइासूरदास प्रभु देखि ग्वालिनीभुज पकरे तब आइ ॥ ४४ ॥ श्याम कहा चाहतसे डोलत । बूझेहूते वदन दुरावत सूधे वोल न बोलत । सूने निपट अँध्यारे मंदिर दधि भाजन में हाथ । अबकहि कहा बनैहौ उत्तर कोऊ नाहिन साथ मैं जान्यो यह घर अपनो है या धोखे मैं आयो । देखतुहौं गोरसमें चीटी काढनको करनायो ॥ सुनि मृदु वचन निरखि मुख सोभा ग्वालिनि मुरि मुसुकानी। सरश्याम तुमही रतिनागर वात तिहारी जानी ॥,४५ ॥ सारंग ॥ यशोदा कहां लौँ कोज ।