पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२२७

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(१३४) सूरसागर। 34Zbe तुम मानौ मेरी वाताढूंढि ढूंढि गोरस सब घरको हरयो तुम्हारे तात ॥ और काटि सीके ते लीनो ग्वाल कंधा दैलात । असंभाषु बोलन आई है ढीढ ग्वालिनी प्रात ॥ चाखतनहीं दूध धौरीको तेरे कैसे खात । औरो कहति कछू सकुचतिहौं कहादिखाऊं गात ॥ ऐसो तौ मेरोनाहि अचगरो कहा बनावति बात । चितवत चकित ओट भए ठाढे यशुदा तन मुसुकात ॥ हैं गुण बडे सूरके प्रभुके ह्यांलरिका जात ॥ ५४॥ गौरी ॥ साँवरोहि वरजति क्यों जुनहीं । कहा करौं दिन प्रतिकी बातें नाहिन परत सही।माखन खात दूध लै डारत लेपत देह दही।तापाछे घरहूके लरिकनु भाजत छिरकि मही।जो कछु धरहिं दुराय दूर ले जानत ताहि तही।सुनहु महरि तेरेया सुत सोहम पचिहारि रही। चोर अधिक चतुराई सीखी जाइ नं कथा कही। तापर सूर बछरुवान ढीलत वन वन फिरत बही ॥ ५५ ॥ कान्हरो ॥ अब ये झूठे बोलत लोग। पांच वरष अरु कछुक दिननिको कब भयो चोरी योग ॥ इहि मिस देखन आवति ग्वालिनि मुँह फाटे युग वारी । अनदेखेको दोप लगावति दई देइगो दारी कैसे करियाकी भुजा पहुँची कौन वेग ह्यां आयो।उखल ऊपर आनि पीठ धार तापर सखा चढायो॥ जो न पत्याहु चलो सँग यशुमात देखौ नयन निहारि । सूरदास प्रभु नेकु न वरजो मनमे महरि विचारि ॥५६॥ मेरो गुपाल सनकसों कहा करि जानै दधिकी चोरी । हाथ नचावति आवति ग्वालिनि जीभुन करही थोरी ॥ कब सीके चढ़ि माखन खायो कव दधि मटुकी फोरी। अँगुरिन कार कबहूँ नहि चाखतु घरही भरी कमोरी ॥ इतनी सुनत पोषकी नारी विहसि चली मुख मोरी । सूरदास यशुदा को नंदन जो कछु करै सु थोरी ॥१७॥ कान्हरो गाइनु आँखियनु आगेते मोहन एकौ पल जिनि होहिं नि न्यारोहौं बलिगई दरश देखे विनु तलफतहैं नैननि के तारेआनो सखा बुलाय आपने यहि आगन खैलौ मेरे बारे।।निरखति रहौं फणिककी मणि ज्यों सुंदर श्याम विनोद तिहा।।मधु मेवा पकवान मिठाई खाटे मीटे व्यंजन खारे।सूरदास प्रभु जोमन इच्छा सोइ सोइ माँगिलेह मेरे प्यारे॥१८॥नट नारायणमिरे लाडिले हो जननिकहत जनि जाहु कहूं। तेरेहि काजै गुपाल सुनहु लाडिले लाल राखेहैं भाजन भरि सुरस छहूं ॥ काहेको पराये जाइ करत इतने उपाइ दूध दधी घृत माखन तहूँकरति कछू न कानि बकतिहै कटु वानि निपट निलज बैन विलखहूं ॥ ब्रजकी ढीठी ग्वारी हाटकी बेचनहारी सकुच न देति गारी झगरि कहूं। कहांला करौं रिस वकत घौं इही कृश इही मिस सूरश्याम बदन च ॥६९॥ धनाश्री ॥ चोरी करत कान्ह धरि. पाये । निशि वासर मोहिं बहुत सतायो अब हरि हाहि आये। माखन दधि मेरो सब खायो बहुत अचगरी कीन्ही । अबतौ आइ परेही ललना तुम्हें भाले मैं चीन्ही ॥ दोउ भुज पकरि कह्यो कित जैहो माखन लेउ मँगाइ । तेरीसों मैं नेकुन चाख्यो सखा गये सब खाइ ॥ मुख तन चित विहसिहँसि दीनो रिस तब गई बुझाइ । लियो/उर लाइ ग्वालिनी हरिको सूरदास बलिनाइ ॥६०॥ धनाश्री ॥ मथतिग्वालि हरिदेखीजाई गये हुते माखन की चीरी देखत छवि रहे नयन लगाइ ॥ डोलत तनु शिर अंचलु उपरयो वेनी पीठि डोलत इहि भाइ । वदन इंदु पयपान करनको मनहुँ उरग उडि लागत धाइ । निरखी श्याम अंग पुनि शोभा भुज भरि धरि लीनो उर लाइचितै रही। युवती हरिको मुख नयन सैन दै चितहि चुराइ तन मन धन गति मति विसराई सुख दीनो कछु, माखन खाइ.। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि तुम्हरी लीला लोकहै गाइ॥६॥ललित देख्यो हरि मथति ग्वालि दधि भेदसो ठाढ़ी। यौवन मदमाती इत- राती वेनी ठुरत कटि पर छवि बाढ़ी दिन थोरी भोरी अति कोरी देखतही जु श्याम भये चाही।