पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३२

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दशमस्कन्ध-१० (१३९) - भली महरि मृधो सुत जायो चोली हारवतावति ।। रिसमें रिस अतिही उपजाई जानि जननि अभि लाप । सूरश्याम भुज गहे यशोदा अव बांधों कहि माप ॥ ९८॥ सोरठ ॥ यशुमति रिस करि करि जो करपे । सुत हित क्रोध देखि माताके मनही मन हरि हरपै। उफनत क्षीर जननि करि व्याकुल इहि विधि भुजा छुड़ायो । भाजन फोरि दही सब डारयो माखन मुहँ लपटायो ॥ ले आई जेवरी अब वांधों गरवजानि न बँधायो।आंगुर दै घटि होत सवनि सों पुनि पुनि और मँगायोनारद शाप भये यमलार्जुन इनको अब जो उधारों।सूरदास प्रभु कहत भक्त हित युग युग में तनु धा ।।९९॥ विटावल यशोदा हरि गहि राजत करपेोगावत गोविंद चरित मनोहर प्रेम पुलकिचित वरपै।।उफनत क्षीर शरीर तन व्याकुल तवहीं भुजा छुड़ायो।भाजन फोरि दही सब डारेव लवनी मुख लपटायो॥ लेकर दाँवरि यशोदा दौरी बँधन कृष्ण ना पायो । । द्वै अंगुर घटै जेवरी ताते अधबुध आयो॥ नारद शाप भये यमलार्जुन तिन हित आपु धायो। सुरदास बलिजाइ यशोदा साँचे देवल आयो॥३०॥ धनाश्री ॥ देखसखी यशुमति वोरानी। घर घर डोलति लेत दामरी वांह गहे हरिकी विततानी ॥ जानति नहीं जगत्पति माधव जिनते सब आपदा नशानी । जाके नाम सकति पुनि ताकी ताहि देखि वांधत नंदरानी।।अखिल ब्रह्मांड उदर में जाके जिनकी ज्योति जल थलहु समानी। मुख जम्हात त्रिभुवन देखरायो अचरज कथा न जात वखानी ॥ ब्रह्मादिक सनकादि शुकादिक भ्रमत रहत इनहू नहिं जानी । सूरदास मोहिं ऐसी लागत जोकछु कहीं गर्गमुनि वानी ॥१॥ राग रामफी ॥ यशोदा येतो कहा रिसानी । कहा भयो जो अपने सुतपे महि टरिपरी मथानी ॥रोस रोस संभरै हग तेरे कीरति पयलए पानी । मनहु शरदके कमल कोशपर मधुकर मीन सकानी॥ भ्रम जलकण किंचित निरखि वदन पर यह छवि कहत मन मानी । मानों चंद्र नव उमॅगि सुधा भुव ऊपर वरपा ठानी । गृह गृह गोकुल दई दाँवरी वाधति भुज नंदरानी । आपु बँधावत भक्तन छोरत बदन विदित श्रम पानी ॥ गुण लघु चरचि करति श्रम जितनो निरखि वदन मुसुकानी। सिथिल अंग सब देखि सूर प्रभु शोभा सिंधु तिरानी ॥२॥ सारंग ॥ बांधों आजु कौन तोहि छोरै । बहुत लंगरई कीनी मोसों भुज गहि रजु उसल सांजोरंजननी आति रिस जानि बँधायोचित वदन । | लोचन जल ढारे । यह सुनि ब्रज युवती ठिधाई कहत कान्ह अव क्यों नहिं चोरै । उसल सों गहि यांधि यशोदा मारनको साँटी करतोरे ।साँटी देखि ग्यालिनि पछितानी विकल भई जहँ जहँ मुख मारे ।।सुनहु महार ऐसीन वृझिये सुत वाँधत माखन दधि थोरै । सूरश्यामको बहुत सतायो चूक परी हमते यह भोर ॥३॥ आसावरी । जाहु चली अपने अपने घर । तुमही सब मिलि ढीठ करायो अव आई बंधन छोरन वमोहि अपने पापाकी सोहै कान्है अब न पत्याऊ । भवन जाहु अपने अपने सब लागतिहीं में पाऊं ॥ मोको जिनि परजो युवती कोउ देखों हरिके ख्याल । सूरश्याम सों कहति यशोदा बडे नंदके लाल ॥ ४॥ सोरठ ॥ यशोदा तेरो मुख हरि जोवै। कमल नयन हरि हिचिकिनि रोवें बंधन छोर जु सौवे ॥जो तेरो सुत खरोई अचगरो तऊ कोखिको जायोकिहा भयो जो घरके ढोटा चोरी माखन खायो। कोरी मटकी दही जमायो जापन पूजन पायो । तेहि घर देव पितर काहेकोजा पर कान्ह रुआयो॥ जाकर नाम लेत भ्रम छूटै कर्म फंद सब काटे ॥सो हरि प्रेम जेवरी वांध्यो जननी साँट लैडाटै दुःखितजानि दोउ सुत कुवेरके ता हित आपु बँधायो । सूरदास प्रभु भक्तहेतुही देह धारि तहां आयो।॥विहागरो ॥ देखौ माई कान्ह हिलकियन रोवै । तनक मुख मासन लपटान्यो डरानते अँसुअन धोवै ।। माखन लागि उलूखल -