पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२३३

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(१४०) सूरसागर। बाँध्यो सकल लोग ब्रज जोवै । निरखि कुरूपि उन वालकनिकी दिशि लाजन आँखियन धोवै ।। ग्वाल कहैं धनि जननि हमारी सुकरसुरभी नित नोवै । वरपसही बैठगरि गोदमें धारै बदन निचोवै ग्वालिनि कहैं या गोरस कारण कत सुतकी पति खोवै । आनि देहि हम अपने घरते चाहति जित कु यशोवै ।। जव जव बंधन छोरयो चाहत सूर कहै यह कोवै । मन माधो तनु चित्त गोरसमें इहि विधि महरि विलोवै ॥५॥ सारंग । माई नेकहुँ न दरद कराति हिलकिनि हारि रोवावहूते कठिन हियो तेरोहै यशोवै ॥ पालना पौढाइ जिनहि विकट वाउ काटै । उलटे भुज बांधि तिनहि लकुट लिये डांटै| नेकह न थकित पानि निर्दयी अहीरी। अहो नंदरानी सीख कौनपै लहारी ॥ जाको शिव सनकादिक सदा रहत लोभा। सूरदास प्रभुको मुख निरखि देखि सोभा ॥६॥ विहागरों ॥ कुर जल लोचन भरि भरि लेत । पालक वदन विलोकि यशोदा कत रिस करत अचेत ॥ छोर कमरते दुसह दाँवरी डारि कठिन कर वेत । कहि तोको कैसे आवतुहै शिशु पर तामस एत । मु.॥ ख आंसू माखनक कनिका निरखि नैन सुख देतामानों शशि श्रवत सुधानिधि मोती उडुगण अब लि समेत ॥ सरवसु तौ न्यवछावार कीनै सूरश्यामके हेत ना जानों केहि हेतु प्रगट भये इहि बज । नंद निकेत ॥७॥ केदारा॥हरिके वदन तन धौंचाही।तनक दधि कारण यशोदा एतो कहा रिसाही॥ लकुटके डर डरत जैसे सजल शोभित डोल । नील नीरज दल मनौ अलि वोसकन कृत लोल ॥ वात वश मृणाल जैसे प्रात पंकज कोस । नमित मुख पर अधरसूचित । सकुचमें कछु रोस । केतिक गोरस हानि जाको करतिही अपमान । सूर ऐसे बदन । | ऊपर वारिये धन प्रान ॥ ८॥ केदारो ॥ मुख छवि देखिहोनंद घरनि । शरद निशिके अश्रु अगणित इंदु आमा हरनि।ललित श्रीगोपाल लोचन लोल आँसूढरनि।मनहुँ वारिज विलखि विभ्रंम परे परवश परनि ॥ कनक मणिमय मकर कुंडल ज्योति जगमग करनि ॥ मित्र लोचन मनहुँआए तर लगति दोउ तरनि ॥ कुटिल कुंतल मधुप मिलि मानौ कियो चाहत लरनि। बदन क्रांति अनूप शोभा सकै सूर न वरनिं ॥९॥ केदारो॥ हार मुख देखिहो नंदनामिहरि ऐसे सुभग || सुतसों इतो कोह निवारि ॥ जलन मंजुल लोल लोचन शरद चितवनि दीन । मनहुँ खेलत है परस्पर मकरध्वज द्वै मीन ॥ ललित कण संयुत कपोलनि ललित कज्जल अंक। मनहुँ राजत। रजनि पूरण कला अति अकलंक ॥ वेगि बंधन छोरि तन मन वारिलै हिय लाइ। नवल श्याम किशोर ऊपर सूर जन वलिजाइ ॥१०॥ विहागरो ॥ कहौ तौ माखन ल्याऊं घरते । जा कारण तू छोरति नाहिन लकुट न डारति करते ॥ महरि सुनहु ऐसी न बूझिये सकुचि गयो मुख डरते। मनहुँ कमल दधिसुत समपोतकि फूलत नाहिंन सरते ॥ उखल लाइ भुजा धरि वांधे मोहन मूरति वरते । सूरश्याम लोचन जल वरपत जनु मुक्ता हिमकरते ॥११॥ कल्यान ॥ कहन लगी अब बढ़ि बढ़ि बात ढोटा मेरो तुमहिं बँधायो तनकहि माखन खात।अव मोहिं माखन देति मॅगाए मेरे घर कछुनाहीं। उरहन करि करि सांझ सवारे तुमहिं बँधायो याही। रिसही में मोको गहिदीनो अब लागी पछितान । सूरदास हँसि कहत यशोदा वूझौ सवको ज्ञान ॥ १२॥ धनाश्री ॥ कहा भयो जो घरके लरिका चोरी माखन खायो । अहो यशोदा कत त्रासतिहौ इहै कोखको जायो॥ वालक जौन अयान न जाने केतिक दह्यो लुटायो । तेरो सखी कहा खायो गोरस गोकुल अंत न पायो । हाहा लकुट त्रास देखरावत आपन पाश बँधायो। रोदन करत दोउ नयन रचेहैं मनह कमल तन छायो ॥ पौदिरहे धरणी पर तिरछे विलखि वंदन कर जाहु । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि - - -