पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२४१

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(११८) सूरसागर। तेरो। जव मोहिं रिस लागति तव वासति बांधति जैसे चेरो। सूर हँसति ग्वालिनि दै तारी चोर नाम कैसेह सुत फऐ५६॥ अथ धेनु दुहनसीखनसमै भय॥ अध्याय एकादशी ॥ बिलावल ॥धेनु दुहत हरि देखत ग्वालिनि ॥ आपुन वैठिगए तिनके सँग सिखवहु मोहिं कहत गोपालनि ॥ काल्हि तुम्हें गोदोहन सिख दुही सबै अब गाइ । भोर दुही जे नंद दोहाई उनसों कहत सुनाइ । बडो भयो अब दुहत रहौंगो अपनी धेनु निवेरी । सूरदास प्रभु कहत सौंहदै मुहि लीजो तुम टेरी ॥ १७॥ कान्हरो | मैं दुहिहौं म्वहि दुहन सिखावहु । कैसे धार दूधकी बाजत सोइ सोइ विधि तुम मोहिं वतावहु ॥ कैसे दुहत दोहनीघुटुवन कैसे बछराथनहि लगावहु । कैसे लैनोई पग बाँधत कैसे लेया पग अटकावहु ॥ निपट भई अब साँझ कन्हैया गाइन पकडं चोट लगावहु । सूरश्याम सों कहत ग्वाल सब धेन द. हन प्रातहि उठि आवहु॥५०॥ सारंग॥महर महरिके मन इह आई । गोकुल बहुत उपद्रव दिन प्रति वसिये वृंदावन अव जाई ॥ सव गोपन मिलि शकटा साजी सवहिनके मनमें इह भाई । सूर यमुन तट डेरा देई पांच वरसके कुअर कन्हाई ॥१९॥ विलावल ।। जागहुहो तुम नंदकुमार । हौं वलिजाउँ मुखार्विंदकी गो सुत मेलो खरिक संभार ॥ इतनो कहा सोये मन मोहन और वार तुम उठत सवार । बारहि वार जगावति माता अंबुज नयन भयो भिनुसार ॥ दधि मथिकै माखन बहु दीनों सकल ग्वाल ठाढ़े दरवार । उठिकै मोहन वदन देखावहु सूरदासके प्राणअधार॥६० ॥ विलावल ।। जागहुहो ब्रजराज हरी । लै मुरली आँगन वै देखौ दिनमणि उदित भयो द्वै घरी ॥गो सुत गढ़ बँधन सब लागे गो दोहनकी जून टरी। निठुर वचन कहि सुतहि जगावति जननि यशोदा पासखरी भोर भयो दधि मथनहोतु सब ग्वाल सखाकी हांकपरी। सूरदास प्रभु दरशन कारण नींद छुड़ाई चरण धरी॥६१ ॥ विलावल ॥ जागहु लाल ग्वाल सव टेरत । कबहुँ पीताम्बरडारि वदन पर कबहुँ उघारि जननि तन हेरत ॥ सोवतमें जागत मन मोहन वात सुनत सबकी अब टेरत ॥ वारंवार जगावति माता लोचन खोलि पलक पुनि घेरत। पुनि कहि उठी यशोदा मैया उठहु कान्ह रविकिरणि उजेरत ॥ सूरश्याम हँसि चितै मात मुख पट करलै पुनि पुनि मुख फेरत ॥ १२ ॥ ॥ सूहा बिलावल ॥ जननी जगावति उठौ कन्हाई । प्रगट्यो तरणि किरणि गण छाई ।। आवहु चंद्रवदन देखराइ । वार वार जननी वलिजाइ ॥ सखा द्वार सब तुमहि बुलावत । तुम कारण हम धाए आवत॥ सूर श्याम उठि दरशन दीनो।माता देखि मुदित मन कीनो॥६॥रामकली ॥दाऊजू कहि श्याम पुकारयो । नीलाम्बर पट ऐंचि लियो हरि मनो वादरते चंद उतारयो । हँसत हँसत दोउ वाहर आये माता लै जल वदन पषारयो । दतवनि लै दुहुँ करी मुखारी नैननिको आलस जु विसारयो॥ माखन खाहु दुहुन कर दीन्ह्यो तुरत मथ्यो मीठो आति भारयो । सूर दास प्रभु खात परस्पर माता अंतर हेत विचारयो॥६४॥ विलावल जागहु जागहु नंदकुमार । राव वड चढ़े रैनि सवनिघटी उघरे सकल किवार ॥वारि वारि जल पियति यशोदा उठु मेरे प्राण अधा र। घर घर गोपी दयो विलोवहिं कर कंकन झनकार ॥ सांझ दुहुन तुम कह्यो गाइको ताते होत अवार। सूरदास प्रभु उठे सुनतही लीला अगम अपार ॥६५॥ तनक कनककी दोहनी देरी मैया । तात दुहन सीखन कयो मोहिं धौरी गैया । अटपटे आसन पैठिकै गोथन कर लीनो। धार अनतही देखिकै ब्रजपति हँसिदीनो ॥ घर वरते आई सबै देखन ब्रजनारी । चितै चोरि चित हरिलियो हँसि गोप विहारी । विप्र बोलि आसन दियो करि वेद उचारी । सूरश्याम सुरभी दुही | संतन हितकारी॥६६॥ अथवत्सासुरवध ॥ नटनारायनी ॥ चले वछरु चरावन ग्वाल। वृंदावन सब छाड