पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२४२

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दशमस्कन्ध-१० (१४९) के लैगये जहँ धन ताल | परम सुंदर भूमि देखत हँसत मनहि वढाइ । आपुलगे तहां खेलन वच्छ दिये वगराइ ॥जानिकै हलधर गये तहँ वाल वछरा पास ।रोहिणी नंदनहि देखत हरप भए हुलास।। ताल रस बलराम चाख्यो मन भयोआनंद । गोपसुत सव टेरिलीने सुधि भई नंदनंद ॥ कह्यो वछरा हांकि ल्यावहु चलहु जहां कन्हाइ । तालरसके पानते अति मत्त भये वलराइ ॥ तहां छल करे दनुज धायो धरे बछरा भेपि । फिरत ढूढत श्यामको अति प्रवल वलको देपि ॥ सवै वछरनि पेरिल्याए वहुन घेरयोजाइ । दाऊ कहि वालकनि टेरयो वृपभ सुतन धराइ॥ कयो मन इहि अब हिंमा उठे वलहि सँभार । टेरिलिये सब ग्वाल पालक गयेआपुप्रचार॥आगे 8 इतको विडारयो पूछ हाथ लगाइ । पकारिकै भुजसों फिरायो तालके तर आइ।असुर लें तरु सों पछारयो गिरयो तरु झहराइतालसों तरुताल लाग्यौ उठ्यो वन बहराइवछ असुरको मारि हलधर चले सबनिलिवाइ। सूर प्रभुको वीर जाकी तिहूं भुवन वडाइ॥६७॥राग देव गंधार । बछरा चारन चले गोपाल। सुवल सुदामा अरु श्रीदामा संग लिए सब ग्वाल ॥ दनुज एक तहाँ आइ पहुँचेउ धरे वत्सको रूप । हरि हलधर दिशि चितइकब तुम जानतहो इहवीर ॥ कहेव आहि दानौ इहि मारौ धारे वत्स शरीर । तब हरि सींग गयो यक करसों यक करसों गहे पाइ ॥ थोरे कहि वलसो छिन भीतर दीनो ताहि गिराइ । गिरत धरनि पर प्राण गए चितवत फिरि नहिं आयो श्वास ॥ सूरदास ग्वालन सँग मिलि हरि लागे करन विलास ॥६८ ॥ अथ वकासुर वध ॥ सारंग ॥ ॥ वन बन फिरत चराक्त धेनु । श्याम हलधर संग है बहु गोप बालक सेनु।तृपित भई सब जानि मोहन सखान टेरन वेनु । बोलि ल्यावो सुरभि गण सब चलौ यमुन जल देन ॥ सुनतही सव हांकिल्याए गाइ करी इकठेन । हेरी देदे ग्वाल वालक कियो यमुन तट गेन ॥वकासुर रचि रूपमाया रह्यो छल करि आइ । चांचु यक पुहुमी लगाई इक अकाश समाइ ॥ आगे बालक जातहैं ते पाछे आए धाइ। श्यामसों सब कहन लागे आगे एक बलाइ॥ नितहि आवत सुरभि लीने ग्वाल गोसुत संग। कबहुँ नहिं इहि भांति देख्यो आजको सो रंग ॥ मनहिं मन तव कृष्ण जान्यो इह वका असुर विहंग । चोंच फार विदारि डारौं पलकमें करौं भंग ॥ निदरि चले गुपाल आगे बकासुरके पास । सखा सब मिलि कहनलागे तुम नजियके आस॥ अजहुँ नाहिं डरात मोहन वचे कितने गास । तब कह्यो हरि चलहु सब मिलि मारि करहि विनास ॥ चले सब मिलि जाइ देख्यो अगम तन विकरार । इत धरणि उत व्योमके विच गुहाके आकार ।। पैठि वदतु विदारिडारयौ अति भए विस्तार । मरत असुर चिकार पारयो मारयो नंदकुमार ॥ सुनत ध्वनि सवग्वाल डरपे अव न उवरे श्याम । हमहिं वरजत गयो देखो किये ऐसे काम ॥ देखि ग्वालन विकलता तब कहि उठे बलराम । वका वदन विदारि डारयो अवहिं आवत श्याम ॥ सखा हरि तब टेरिलीने सबै आवहु धाइ। चोच फारि वकासंहारचौ तुमहु करौ सहाइ ॥ निकट आए गोप पालक देखि हरि सुखं पाइ । सूर प्रभुके चरित अगणित नेति निगम न गाइ ॥ ६९॥ ब्रजको उपज्यों है यह ..भैया। संग सखा सब कहत परस्पर इनको गुण अगमैया ॥ जयते व्रज अवतार धरयो इन कोड नहिं घात करैया। किती वात यह वका विदारयो धनि यशुमति जिन जैया ॥ तृणावर्त पूतना पछारी तव अंति रहे नन्हैया । सूरदास प्रभुकी लीला यह हम कत जिय पछितैया ॥ ७० ॥ धनाश्री ॥ वका विदारि चले व्रजको हरि । सखा संग-आनंद करत सब अंग अंग बन धातु चित्र कार ॥ वनमाला पहिरावत श्यामहि वार वार अँकवारि भरत परि। कंस निपात करोगे तुमही हम % 3D % 3D % 3 D