पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- (१९२) सूरसागरे। । नहिं आवै । देखत बन अति अगम डरौं वै मोहै डरपावै ॥ वार वार उर लाईकै लइ वलाइ पछिताइ । कालिहिते वेई सबै ल्यावहिं गाइ चराइ ।। १५ ॥ यह सुनिक हरि हँसे कालि मेरि जाइ बलैया । भूख लगी मोहिं बहुत तुरतहीदै कछु मैया॥ माखन दीयो हाथकै यह तवलो तुम खाहु तातो जलहै घामको तनक तेलसों न्हाहु ॥ १६॥ तब यशुमति गहि बाँह तुरत हरि लै अन्हवाए। रोहिणि करि जिवनार श्याम बलराम बुलाए ॥ जेंवत आति रुचि पावहीं परुसति माताहेत । जेय उठे अँचवन लियो दुहुँ कर वीरा देत ॥ १७॥ श्याम उनीदे जानि मात रचि सेज विछायो । तापर पौढे लाल अतिहि मन हरष बढायो । अघ मर्दन विधि गर्व हत करत न लागी वार ।। सूरदास प्रभुके चरित पावत कोउ न पार ॥१८॥ ललित ॥ हौं नाहिन जगाइ सकति सुनु सुवात सननीरी। अपने जान अजहुँ कान्ह मानतहैं रजनीरी। जब जब हौं निकट जाति रहति लागि लोभा। तनकी गति विसरि जाति निरखत मुख शोभा॥ वचननिको बहुत करति शोचति जिय ठाढी । नैननि सुविचार करति देखत रुचि बाढ़ी ॥ यहि विधि वदनार्विद यशुमति जिय भावै । सूरदास सुख की राशि कापै वणि आवै ॥३७८ ॥ बिलावल ॥ नंदमहरके भावते जागो मेरे वारे । प्रात भयो उठि देखिये रवि किरणि उज्यारे । ग्वाल बाल सब टेरहिं गैया बनचारन । लाल उठौ मुख धोइये लागीवदन उघारन । मुखते पटु न्यारो कियो माता कर अपने । देखि वदन चकृत भई सोतुककी सपने ।। कहा कहौं वह रूपकी को वरणि बतावै । सूर सु हरिके गुण अपार नंद सुवन कहावै ॥३७९ ॥ राग ललित ॥ उठे नंदलाल सुनत जननीकी वानी । आलस भरे नैन दोउ सकल शोभाकी खानी ॥ गोपीजन विथकितदै चितवत सब ठगढी । नैनकर चकोर' चंद्र वदन प्रीति वानी ॥ माता जलझारी लै कमलमुख पखारचौ । नैन नीर परसि करत आलसही विसारचौ ॥ सखा द्वार ठाढे सब टेरतहैं बनको। यमुना तट चली कान्ह चारन गोधनको ॥ सखा सहित जेवहु मैं भोजन कछु कीनो। सूरश्याम हलधर सब सखा बोलिलीनो ॥ ३८० ॥ विलावल ।। दोउ भैया जेवत माँ आगे। पुनि पुनि लै दधि खात कन्हाई और जननि पै माग । आत मीठोदधि आजु जमायो बलदाऊ तुम लेहु । देखौ धौं दधि स्वाद आधु लै ता पाछे मोहिं देहु ।। बल मोहन दोऊ जेंवत रुचिसों सुख लूटति नंदरानी । सूरश्याम अब कहत अघाने अँचवन मांगत पानी । ॥ रामकली ॥ द्वारे टेरतहैं सब ग्वाल कन्हैया आवह बार भई । आवहु वगि विलम जनि लावहु गैयां दूरि गई । इह सुनतहि दोङ उठि धाए कछु अँचयो कछु नाहीं। कितिक दूरि सुरभी तुम छांडी वनतो पहुँची आहीं।ग्वाल कह्यो कछु पहुँची हैहैं कछु मिलिहैं मगमाहीं सूरश्याम बल मोहन भैया गैयन पूछत जाहीं॥ ८॥ विलावळ ॥ वन पहुँचत सुरभी लई जाई । जैही कहां संख नको टेरत हलधर संग कन्हाई ॥जेंवत परखलियो नहिं हमको तुम अति करी चडाई । अब हम जैहैं दूरि चरावन तुम सँग रहै बलाई ॥ यह सुनि ग्वाल धाइ तहां आए श्यामहि अंकमलाई सखा कहत यह नंद सुवनसों तुम सबके सुखदाई ॥ आज चलौ वृंदावन जैए गैया चरै अघाई। सूरदास प्रभु सुनि हरषित भए घरते छाक मँगाई ॥८२ १ बिलावल ॥ चले सब वृंदावन समुहाइ । नंदसुवन सब ग्वालन टेरत लावहु गाइ फिराइ ॥ अति आतुरकै फिरे सखा सब जहाँ तहां आये धाइ । वूझत वात ग्वालकेहि कारण बोले कुँअर कन्हाइ। सुरभी वृंद तही को होका औरन लेहु बोलाइ । सूरश्याम यह कही सबनिसों आप चले अतुराइ ॥ ८३॥ धनाश्री ।। गेयन पार सखा सब ल्याए। देख्यो कान्ह जात वृंदावन याते मन अति हरप बढाए।। आपसमें सब करत । -