पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२४७

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- (१५४) सूरसागर। कोउ न बताई । सूरश्याम को टेरति डोलति कतही लाल छाक मैं ल्याई ॥ ९४ ॥ टोडी ॥ आजु कौने धौं वन चरावत गाइ कहां अई अवेर । बैठे कहां सुधि लेउँ कौन विधि ग्वारि करत अवसेर ॥ वृंदावन दै आदि सकल वन ढूंढयो जहां गायनकी टेर । सूरदास प्रभु रसिक शिरोमाण कैसे दुरत दुराये कहौ धौ डुंगरनकी ओट सुमेर ॥ ९५ ॥ छाक लिये शिर श्याम बुलावति । ढूँढति फिरति ग्वारिनीके कार कहूं भेद नहि पावति ॥ टेर सुनत काहूको श्रवणनि तही तुरत उठि धावति । पावति नहीं श्याम बलरामहि व्याकुल है पछितावति ॥ वृंदावन फिरि फिरि देखतिहै बोलि उठे तहाँ ग्वाल । सूरश्याम बलराम इहाँह छाक लेहु किन लाल ॥१६॥ | ॥ कान्हरो ॥ फिरत बन बन वृंदावन वंशीवट संकेत वट नट । नागर कटिकाछे खौरि केसरिकी कीये। पीत वसन चंदन तिलक मोर मुकुट कुंडल श्याम धन यह छवि लिये ॥ तनु त्रिभंग सुगंध अंग निरखि लज्जित रति अनंग ग्वाल बाल लिये संग प्रमुदित सब हिय।।सूरझ्याम अति सुजान मुरली ध्वनि करत गान ब्रजजन मनको सुख दिये॥९॥हरिको टेरति फिरति गुआरिआई लेहु तुम छाक आपनी बालक बल बनवारि॥आज कलेऊ करत वन्यो नाहि गैयन सँग उठिधाए । तुम कारण बन छाक यशोदा मेरेहि हाथ पठाए यह बानी जब सुनी कन्हैया दौरि गए तेहि काजू ॥सूरश्याम कह्यो नीके आई भूख बहुतही आजू ॥ ९८ ॥बहुत फिरी तुमकाज कन्हाई। टेरि टेरि मैं भई बावरी | दोउ भैया तुम रहे लुकाई।जे सब ग्वाल गए ब्रज घरको तिनसों कहि तुम छांक मँगाईीलवनी दधि मिष्टान्न जोरिकै यशुमति मेरे हाथ पठाई ॥ ऐसी भूखमांझ तू ल्याई तेरी केहिविधि करौं बड़ाई। सूरश्याम सब सखन पुकारत आवहु क्यों न छाक है आई ॥ ९९ ॥ सारंग ॥ गिरिपर चढि गिरि वर धर टेरे॥ अहो सुबल श्रीदामा भैया ल्यावहु गाइ खरिकके नेरे ॥ आई छाक अवार भई है नैसुकु घैया पिअहुँसबेरे ॥ सूरदास प्रभु बैठि शिलनि पर भोजन करें ग्वाल चहुँ फेरे ॥ ४०९॥ नट ॥ विहारी लाल आवहु आई छाक । भई अवार गाइ बहुराबहु उलटावहु देहांक । अर्जुन भोज अरू सुवल श्रीदामा मधु मंगल इकताक मिलि बैठे सब जेवन लागे बहुत वन्यो कहि पाक ॥ अपनी पत्रावलि सब देखत जहां तहां फेनी पिराक । सूरदास प्रभु खातग्वाल संग ब्रह्म लोक यह धाक ॥१॥ सारंग ॥ आई॥ आई छाक बुलाए श्याम ॥ यह सुनि सखा सबै जुरि आए सुबल सुदामा अरु श्रीदाम ॥ कमलपत्र दोना पलाशके सब आगे धरि पुरुसत जात । ग्वाल मंडली मध्यश्यामवन सब मिलि भोजन रुचि करि खात ॥ ऐसी भूखमांझ इह भोजन पठे दियो करि यशुमति मात । सूरश्याम अपनो नहिं जेवत ग्वालन करते लैलेखात ॥२॥सखन संग हरि जेवत छांका प्रेम सहित मैयादै पठए सबै बनाएहैं एकताक।सुवल सुदामा श्रीदामा संग सव मिलि भोजन रुचि सों खात । ग्वालन करते कौर छडावत मुखलै मेलि सराहत जात ॥ जो सुख कान्ह करत वृंदावन सो सुख नहीं लोकहं सात । सुरक्ष्याम भक्तनवश ऐसे ब्रजहि कहावत हैं नंदतात ॥३॥ ग्वाल मंडलीमें बैठे हैं मोहन वरकी छहिया दुपहरीकी विरियां संगलीने । येकमथत दोहनी दूध येकवंटावत फलचने ॥ एकनिकर हरि झगरि लेत ऐसवनि आपनी कमर के आसन कोने । जेंवतहै अरु गावत कान्ह सारंगीकी तान लेत सखनिके मध्य विराजत छाक लेत कर छीने सूरदास प्रभुको मुख निरखत सुररीझिह सुमनीन वरपत सभीने ॥४॥ ग्वालन करते कौर छंडावत । जूठो लेत सबनके मुखको अपने मुखले नावत ॥ पटरसके पकवान धरे सब तामे ॥ . नहिं रुचि पावत । हाहा करि करि मांगि लेतहै कहत मोहँ अति भावत ॥ यह महिमा एई पै ।