पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२५२

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दशमस्कन्धं-१० दियो पत्तार । देहरि उलॅघिसकत नहि सो अब खेलत नंददुआर ॥ अनुदिन सुरतरु पंचसुधारस चिंतामणि सुरधेनु । सो तजि यशुमति को पै पीवत भक्तनको सुखदैन ॥ रवि शशि कोटिकला अवलोकत त्रिविध ताप क्षय जाइ । सो अंजन करलै सुतकहि चछु आँजति यशुमति माइ ॥ दाता भुक्ता हरता करता विश्वभर जग जानिाताहि लाहि माखनकी चोरी वांधे यशुमति रानिवेिद वेदांत उपनिषद अरपैसो भख भुक्ता नाहि । गोपी ग्वालानके मंडल में सो हँसि जूठनिखाहि ॥ कमलानायक त्रिभुवनदायक दुख सुख जिनके हाथ । कांधे कमरिआ कांख लकुटिया विहरतवन वछ साथ ॥ वकी वकारसुट शकट तृणावर्त अप प्रलंबविप भास । केसी कंसको वह गति दीनीराखे चरन निवास ।। भक्तवछल अखिल अंतर्यामी रहे सकल भरपूर । मारग रोकि रह्यो द्वारपरि पतित शिरोमणि सूर॥३६॥ गूढमलार ॥ आदिसनातन हरि अविनासी।सदा निरंतर घट घटवासी। पूरण ब्रह्म पुराण वखानाचतुरानन शिव अंत न जान।गुणगण अगम निगम नहिं पावै।ताहि।यशो- दा गोद खिलावै ॥ एक निरंतरध्यावै धानी। पुरुष पुरातनहै निर्वानी।जप तप संयम ध्यान न आवै। सोई नंदके आंगन धावलोचन श्रवणनि रसना नासानापद पानि न तनपरगासा ॥ विश्वभर निज नाम कहावीघर घर गोरस जाय चुरावै॥शुक शारदसे करत विचारानारदसे पावहिं नहिंपारा।।अवर परन सुर तीनहि धार । गोपिनिकोसो वदन निहारै ॥ जरा मरनते रहित अमाया। माता पिता सुत वंधु न जाया॥ज्ञान रूप हृदयमें घोले। सोनंद महरके आंगन डोल।।जल धर अनिल अनल नभछायो । पंच तत्त्व मिलि जगत् उपायो॥ कालडरै जाके डरभारी। सोउखल वांध्यो महतारी॥ माया प्रगट सकल जगमोहै । कारन करन करेसो सोहै ॥ ब्रह्मादिक जेहि ध्यान न पावै । सोगो कुलमें गाइ चरावै ॥ अच्युत रहै आद्य जलसाई।परमानंद परम सुखदाई । लोकरचैराखै प्रतिपारै सो ग्वालन संग लीला धारै । गुण अतीत अविगत न जनावै । यश अपार श्रुति पार न पावै ।। जाकी महिमा कहत न आवै ॥ सो गोपिन संग रासरमावै ॥ जाकी महिमालखै न कोई । निर्गुन सगुण धरै वपु सोई ॥ चौदह भुवन पलकमे टारै । सो बनवीथिनकुटी सँवारे। चरण कमल नितरमापलोवै । चाहतनै कनेन भरि जोवै ॥ अगम अगोचर लीला धारी।। सोराधावश कुंज विहारी|भागवडे जे सकल ब्रजवासी जिनके संगरमे अविनाशी ॥ जोरस ब्रह्मादिक नहिं पावै । सोरस गोकुल गली कहावै । सूरसुयश कहि कहा वखाने । गोविंदकी गति गोविंद जाने ॥ ३७॥ मलार ॥ विनवै चतुरानन कहि भोरें । तुव प्रताप जान्यो नहिं प्रभुजू कर स्तुति कर जोरै ॥ अपराधी मतिहीन नाथ हौं चूक परी निज धोरैं। हम कृत दोषुक्षमौ करुणा मय ज्यों भूपर सत और ॥ युग युग विरधइहै चलि आयो सत्य कहतु अब होरे । सूरदास प्रभु पछिलै लेखें अब न वनै मुख मोरे ॥ ३८ ॥ सारंग ॥ माधव मोहिं करौ वृंदावन रेनु । जिन चरन न डोलत नंद नंदन दिन प्रति चारत धेनु ॥ कहा भयौहै देव देह धरि अरु ऊंचो पद पायो ऐनु । सब जीवनलै उदर मांझ प्रभु महाप्रलय जल करत है सैनु । हमते धन्य सदा वैतृण दुम बालक वच्छ विपानरुवैन । सूरश्याम जिनके सँग डोलत हँसि बोलत मथि पियतहै फेन ॥३९॥ राग सारंग ॥ ऐसे वसिए व्रजकी वीथिनि । ग्वालनके पनवारे चुनि चुनि उदर भरैए सीथिनि ॥ पैडेके सब वृक्ष विराजत छाया परम पुनीतनि ॥ कुंज कुंज प्रति लोटि लोटि रतिरज लागै रंगरीतनि ॥ निशि दिन निरखि यशोदानंदनु अरु यमुनाजलती तिनि । परसत सूर होत तन पावन दरशन करत अतीतनि॥४०॥ धनि यह वृंदावनकी रेनु ।। नंदकिसोर चराई गैया मुखहि बजावत वेनु ॥ %3-