पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२५६

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- - दशमस्कन्ध-१० (१६३) सर निरखि मुख सकुचि भगाने या लीलाकी यह सयानी ॥ ६७ ॥ कल्याण ॥ सुंदर गई गृह । समुहाइ । दोहनी कर दूध लीन्हे जननि टेरि बुलाइ ॥ प्रेम प्रीति निचोल हरिको कहूं धरयो जुछि पाइाऔरकी और कहति कछु माता मनहि डराइ ॥ कुँचरिको कहुँ डीठिलागी निरखिकै पछिताइ। सूर तब वृपभानु वरनी राधिका उर लाइ ।। ६८॥ जननी कहति कहा भयो प्यारी । अवहीं खरि क गई तू नीके आवतही भई कौन विथारी । एक विटिनियां सँग मेरेथी कारे खाई ताहि तहारी। मों देखत वह परी धरणि गिरि में डरपी अपने जिय भारी । श्याम वरण एक ढोटा आयो यह नहिं जानत रहत कहारी । कहत सुनो वह नंदको वारो कछु पटिक वह तुरतहि झारी । मेरो मन भरिगयो त्रासते अव नीको मोहिं लागतु मारी। सूरदास अति चतुर राधिका यह कहि समुझाई महतारी ।। ६९ ॥ गौड मलार ॥ कुँवरिसों कहति वृपभानु घरनी। नेक नहिं पर रहाते तोहिं कितनो कहति रिसनि मुहिं दहति वन भई हरनी । लरिकिनी सबनि घर तोसी नहीं कोक निडर चलत नभ चितै जो तकै धनि । बड़ी करवर टरी सांपसों ऊपरी वातक कहत तोहिं लगति जरनि लिखी मेटै कौनु कर्ता कर जौन सोई है होनहारी करनि । सुता लई उरलाइ तन निरखि पछि ताइ डरनि गई कुंभिलाइ सूर वरनि।।७०॥महर वृपभानके यह कुमारी । देवधामी करत द्वार द्वारे परत पुत्र द्वै तीसरी यह वारी।भई वरप सातकी शुभ घरी जातकी प्यारी दुहुँ भ्रातकी बचीभारी कुँवार दई अन्हवाइ गई तन मुरझाइ वसन पहिराइ कछु कहति खारी ॥ जाहि जनि खरिक तन खेलि अपने सदन यह सुनत हँसति मन श्याम नारी । सुरप्रभु ध्यान धरि हरपि आनंद भरि गाँव घर खेलिहों कहति कारी ॥ ७१ ॥ श्री राधिका जीको यशादा गृह गवन ॥ आसावरी । खेलनके मिस वरि राधिका नंदमहरके आईहो । सकुच सहित मधुरे करि बोली घरहो कुँवर कन्हाई हो । सुनत श्याम कोकिल सम वाणी निकसे अति अतुराईहो । मातासों कछु करत कलह हरि सो डारयो विसराईहो ॥ मैयारी तू इनको चन्हिति वारंवार वताईहो। यमुना तीर काल्हि मैं भूल्यौं वह पकार लै आईहो । आवति यहां तोहि सकुचति है मैं दै सोह बुलाईहो । मुरझ्याम ऐसे गुण आगर नागरि बहुत रिझाईहो ॥ ७२ ॥ को जानै हरिकी चतुराई। नयन सयन संभाषण कीनो प्यारीकी उर तपनि बुझाई ॥ मनहीं मन दोउ रीझि मगन भए अति आनंद उरमें न समाई । कर पल्लव हरिभाव वतावत एक प्राण द्वै देह बनाई ।। जननी हृदय प्रेम उपजायो कहति कान्हसों लेहु बुलाई।सूरश्याम गहि वाह राधिका ल्याए महरि निकट बैठाई ॥ ७३ ॥ सूही ॥ देखि महरि मनही जु सिहानी । वोलि लई बूझति नंदरानी कुंपरि कहति मधुरे मधुवानीबजमें तोहिं कहूं नहिं देखी कौन गाउँ है तेरो । भली करी कान्हहि गहि ल्याई भूल्यो तो सुत मेरो ॥ नयन विशाल वदन अति सुंदर देखत नीकी छोटी । सूर महरि सवितासों विनवति भली श्यामकी जोटी ॥ ७९ ॥ रागनट ॥ नामु कहाहै तेरो प्यारी। बेटी कौन महरकी है तू कहि सु कौन तेरी महतारी ।। धन्य कोख जिन तुमको राख्यो धन्य घरी जिहि तू अवतारी । धन्य पिता माता धनि तेरो छवि निरखति हरिकी महतारी ।। मैं वेटी वृपभानु महरकी मैया तुमको जानाति । यमुना तट बहु बार मिलन भयो तुम नाहिन पहिचानति।। ऐसी कहि वाको मैं जानति वैतो बढ़ी छिनारि । महर बडो लंगर सब दिनको हँसत देति मुख गारि॥ राधा बोलि उठी बावा कछु तुमसों ढीठयो कीनी। ऐसे समरथ कब मैं देखे हँसि प्यारी उर लीनी॥ महरि कुँवारसी यह कहि भापति आर करौं तोर चोटी।सूरदास हरपी नँदरानी कहति महरि हम जोटी।। । ॥ ७९ ॥ गारी ॥ यशुमति राधा कुँवरि सँवारति । बड़े वार श्रीवंत शीशके प्रेम सहित लै लै निरं ।