पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२५७

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(१६४) सूरसागर। वारति ॥ मांग पारि बेनीहि सँवारति गूंथी सुंदर भांति । गोरे भाल विंदु वंदन मनौं इंदु प्रात रवि क्रांति ॥ सारी चीर नई फरिया लै अपने हाथबनाइ। अंचलसोंमुख पोंछि अंग सब आपुहि लै पहि- राइ॥ तिल चाँवरी बतासे मेवा दियो कुँवरिके गोद । सूरश्याम राधा तनचितवत यशुमति मन मन मोदी७६||अथ श्याम राधा खेलन समय ॥ कल्याण ॥ खेलोजाइ श्याम सँगराधा यह सुनिकुवरि हरप मन कीनों मिटी जु अंतर बाधाजननी निरखि चकित भई ठाढीदंपति रूपअगाधादेखत भाव दुहुँनको सोई जो चित करि अवराधा संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभावढी अवाधा। मनहु तडित धन इंदु तरनिहै वाल करत रस साधा ॥ निरखत विधि भ्रम भूलि परयो तब मन मन करत समाधा। सूरदास प्रभु और रच्यो विधि शोच भयो तन दाधा ॥ ७७॥ केदारो ॥ विधिके आन विधिको शोचु । निरखि छवि वृषभानु तनया सकल मम कृत पोचु ॥रामा गौरी उर्वशीरति इंदिरा विभव समति । तुल्यादि दिनमणि कहा सारंग नाहिं उपमा देति ॥ चरण निरखि निहारि नख छबि अजित देखें तोकि । चित्त गुण महिमा न जानत धीर राखित रोकि ।। सूर आन विरंचि विरचे भक्त निज अवतार । अबलके बल सबल देखि अधीन सकल शृंगार ॥७८ ॥ राधा गृहगवन ॥ रागनट ॥ राधे महरिसों कहि चली । आनि खेलौ रहसि प्यारी श्याम तुम हिलिमिली। बोल उठे गुपाल राधा सकुच जिय कत करति । मैं बुलाऊं नहीं आवति जननि को कत डरति॥ मैया यशोदा देखि तोको करति कितनो छोहु । सुनत हरिकी बात प्यारी रही मुख तन जोहु ॥ हँसि चली वृषभानु तनया भई बहुत अवार । सूर प्रभु चितते टरत नहिं गई घरके द्वार ॥ ७९॥ विहागरो।बूझति जननी कहां हुती प्यारी । किन तेरे भाल तिलक रचि कोनों किहि कच गदि मांग शिर पारी॥ खेलत रही नंदके आंगन यशुमति कही कुँवरियां आरीतिलचावरी गोद करि दीनी फरिया दई फारि नव सारी ॥ मेरो नाउँ बूझि बाबाको तेरो बूझि दई हँसि गारी। मोतन चितै चितै टोटा तनकछु सवितासो गोद पसारी। यह सुनिकै वृषभानु सुदित चितहसि हसि बूझति वात दु. लारी। सूरसुनत रससिंधु बन्यो अति दंपति मनमें यहै विचारी ॥८॥ राग गौरी ॥ मेरे आगे महरि यशोदा मैयारी तोहिं गारी दीन्ही । वाकी वात सवै मैं जानति वै जैसी तैसी मैं चीन्ही ॥ तोको कहि पुनि कह्यो बबाको बड़ो धूर्त वृषभानु । तब मैं कह्यो ढग्यो कब तुमको हँसि लागी लपटान । भली कहीं तें मेरी बेटी लयो आपनो दाउ। जो मुहि कयौ सबै उनके गुण हॉसि हसिकहत सुभाउ फेरि फेरि बूझति राधासों सुनत हँसत सब नारि। सूरदास वृषभानु घरनि यशुमति को गावति गारि८१ गौरी । कहत कान्ह जननी समुझाई । जहाँ तहाँ डारेरहत खिलौना राधा जनि लैजाइ चुराई । सांझ सवारे आवन लागी चितै रहति मुरली तन आइ ॥ इनही में मेरो प्राण वसतुहै तेरे भाए नेकुन माइ॥ राखि छपाइ कह्यो करि मेरो बलदाऊको जान पतिआइ । सूरदास यह कहति यशोदा को लैंहै मुहि लगो बलाइ ॥ ८२ ॥ आसावरी ॥ मेरे लालके प्राण खिलौना ऐसो को लैजैहैरी । नेक सुनन जोपैहौं ताको सो कैसे बज रहेरी ॥ विनदेखे त कहा करेगी सो कैसे प्रगटैहैरी । अजहुँ राखि उठाइरी मैया मांगेते कहा दैहैरी॥ आवतही लै है राधापुनि पाछे पछितैहैरी।सूरदास तब कहत यशोदा बहुरि श्याम. विरुझैहैरी ॥ ८३॥ नट ॥ सैंतति महरि खिलौना हरिके । जानति टेउ आपने सुतकी रोवतिहै पुनि लरिकै ॥धरि चौगान वेत मुरली धरि अरु भौण चकडौरी। प्रेम सहित धार धरि लैराखति जे सव मेरेकोरी॥ श्रवणनि सुनत अधिक रुचि लागति हरिकी बतियां भोरी । सूर श्यामसों कहति यशोदा दूध पियहु बलि तेरी॥८॥आजु सवारे धेनु दुही मैं वहै दूध मोहिं प्यारी। कर - -