पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दशमस्कन्ध-१० (१६५) सुनमैया मैंतो पय पीवो मोहिं अधिक रुचि आवैरी ॥ और धेनुको दूध न पीवों जो करि कोटि बनावैरी । जननी कहति दूध धौरीको मोको सौंह करावैरी ॥ तुमते मोहिं और को प्यारो वारंवार मनावरी । सूरश्यामको पय धौरीको माता हितसो ल्यावैरी ॥ ८५॥ आछो दूध पियो मेरे तात। तातो लगत वदन नहिं परशत फूकिं देतहै मात ॥ औटि धरयो अवहीं मनमोहन तुम्हरे हेत वनाइ । तुम पीयों मैं नयनन देखों मेरे कुँवर कन्हाइ ॥ दूध अकेली धौरीको है तनको अति हितकारी । सूरश्याम पय पीवन लागे अति तातोदियोडारी॥८६॥ राग विहागरो। देखत पय पीवत बलराम । तातो लगत डारि तुम दीनों दावानल पीपत नहि ताम ॥ कवहूं रहत मौन धार जलमें कवहूं फिरत बधावत दामाकवहुँ अघासुर बदन समाने कबहुँ अँध्यारे जात न धामकबहुँ करत वसुधा सब जयपद कवहूं देहरि उलंपि न जाइापट दश सहस गोपिका विलसत वृंदावन रस रास रमाइ ॥ | इहै जानि अवतार धरत ब्रज सुर नर मुनि यह भेद न पाई । राजाछोरि वंदिते ल्याए तिहूंलोकमें विदित बड़ाई ॥ युग युग ब्रज अवतार लेत प्रभु अखिल लोक ब्रह्मांडके नाथ । यई गोप यइ ग्वाल इहै सुख यह लीला कहुँ तजत न साथ ॥ एई कान्ह इहै वृंदावन यहै यमुना यहै कुंज विहारायहै विहार करत निशि वासर येई हैं जनके प्रतिपार ॥ये हैं श्रीपति बहु नायक एई हैं कर्ता संसार । रोम रोम प्रति अंड कोटि रवि मुख चूमति यशुमति कहि वार।। एई कंसकै वेर संहारयो ब्रह्म धरयो कृष्ण अवतारामाखन खात चुराइ घरनते बहुत वार भए नंदकुमाराआदि अंत कोड नहिं जानतु हरता करता सबके सारासूरदास प्रभु बाल अवस्था तरुण वृद्धको करै निवार ॥८॥ केदारो ।। बलि बलि चरित गोकुलराइ । दावानलको पान कीन्हो पीवत दूध रिसाइ ॥ पूतना हठि प्राण लीन्हें आपुन उर लपटाइ । कहति जननी दूध डारत खिझत कछु अनखाइ ॥ धरयो गिरि वर दोहनी कर धरत वाह पिराइ । शकट भंजन मथन कुच युग कठिन लागत पाइ॥ तृणावर्त अकाशते पटक्यो शिलापर जाइ । डरत लाल हिंडोरे झूलत हरेदेत झुलाइ ॥ बकासुरकी चोंच फारे सबै दिए देखाइ । कीर पिंजरा गहत मोहन अँगुरी लेत भगाइ ॥ विना दीपक सदन महियां तहां धरत न पाइ । अघासुर मुख पैठि निकसे वाल वच्छ छड़ाइ।लिख्यो कौरे नाग काजर ताहि देखिडराइ । नृतत कालीनाग फन प्रति सुहथ ताल वजाइ ॥ यमलार्जुन तोरि तारे हृदय प्रेम वडाइ । झटकि पात पलाश पल्लव देह देत दिखाइहरे बालक वत्स नवक्रित हेतु दौरी माइ। चरत धेनु न मिली तिनको आप दौरे धाइ ॥ वृपभ गंजन मथन केशी हने पूंछ फिराइ । भजत सखा समेत मोहन देखि व्याई गाइ ॥ गोपनारी संग मोहन कियो रास बनाइ । कहति जननी व्याहको तब रहत वदन दुराइ ॥ कहा वरणों कोटि रसना हिये बुधि उपजाइ । सरके प्रभु रसिक हरि पर अंग अंग विहाइ ॥ पंद्रह अध्याय अथ गोचारन ॥ रामकली ॥आज मैं गाइ चरावन जैहौं । वृंदावनके भाँति भाँति फल अपने करमैं खैहौं ॥ ऐसी अवहिं कहो जानि वारे देखौ अपनी भांति । तनक तनक पाँइ चलिहौ कैसे आवत है राति ॥ प्रात जात गैयां ले चारन घर आवतहैं सांझ । तुम्हरो कमल वदन कुम्हिलैहै रेंगत घामहिं मांझ॥ तेरी सों मोहिं घामु न लागत भूख नहीं कछु नैक । सूरदास प्रभु कहो न मानत परे आपनी टेक ॥८९॥ मैया हौं गाय चरावन जहाँ । तूकहि महर नंदवावासों बड़ो भयो न डरैहौं । तेरे हेत मात मन सुख अरु हलधर संगहि रहौं । वंशीवट तर गाइनके संग खेलत अति सुख । पैहौं । ओदन भोजन दै दधि कांवरि भूख लगैते खैहौं । सूरदास मैं साथ सौंह दे जो यमुना जल