पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२६२

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देशमस्कन्ध-१० (१६९) ल करैया। यह सुनि श्याम हँसे कहि दाल झूठहि कहतिहै मैया ॥ जानि परत नहिं साँच झुठाई धेनुचरावत रहे झुरैया । सूरदाप्त प्रभु कहति यशोदा मैं चेरी कहि लेति वलैया॥१८॥ कल्याण यह कहि जननि दुहुनि उर लावति । सुमनसुत अंग परसि तरनि जल वलि वलि गई कहि कहि अन्हवा वति ॥ सरसवसन तनु पॉछि गई लै पटरसके जेवनार जेवावति । शीतल जल कपूर रस रचयो झारी कनक लए अचवावति ॥ भरयो चरू मुख धोइ तुरतही पीरेपान वीरी मुखनावति । सूरश्या- मसुख जानि मुदितमन सेज्यापर संग लै पौढ़ावति ॥१९॥ विहागरो॥सोवत नींद आइगई श्यामहि महरि उठी पौढाइ दुहुँनको आपु लगी गृहकामहि । वरजतिहै वरके सब लोगनि हरुये लैलै नामहि । गाढे बोल न पावत कोऊ डर मोहन वलरामहि । शिव सनकादि अंत नहिं पावत ध्यावतहैं निशि जामहि ।। सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन सो सोवत नंदधामहि॥२०॥ देखत नंद कान्ह अति सोवत। भूखे भए आजु बन भीतर यह कहि कहि मुखजोवत ॥ कह्यो नहीं मानत काहूको आपहठी दो- उवीरवार वार तनुपांछत करसों अतिहि प्रेमकी पीर ॥ सेजमँगाइ लई तहां अपनी जहां श्याम वलराम । सूरदास प्रभुके ढिग सोये संग पौठी नंदवाम ॥ २१ ॥ जागि उठे तब कुँवरकन्हाई । मैया कहां गई मो ढिगते सँग सोवत जान्यो वलभाई ॥ जागेनंद यशोदा जागी वोलि लिए हरि पास । सोवत झिझिक उन्यो काहेते दीपक दियो प्रकाश ॥ सपने कूदि परयो यमुनादह काहू दियो गिराई । सूरश्यामसों कहति यशोदा जिनिहो लाल डराई ॥ ॥२२॥राग गौरी ॥ मैं वरजी यमुनातट जात । सुधिरहिगई न्हातकी तेरे जिनि डरपो मेरे तात। नंद उठाइ लियो कोराकरि अपने संगपौढाइ । वृंदावनमे फिरत जहाँ तहँ केहि कारण तूजाइ॥ अब जिनि जैहौ गाइ चरावन कहांको रहत बलाइ । सूरश्याम दंपति विच सोए नींदंगई तबआइ॥ ॥ २३ ॥ फल्याण ॥ सपनो सुनि जननी अकुलानी ॥ दंपति वात कहत आपुसमें सो अतिसारं गपानी ॥ या व्रजको जीवनि यह टोटा कह देख्यो यहि आजु ॥ गाइ चरावन जान न दीजै याको है कह काजु ॥ गृह संपति द्वै तनक टोटोना इनहीं लौं सुख भोग । सूरश्याम वनजात चरावन हँसी करत सब लोग ॥ २४ ॥ भैरवी ॥ यहि अंतर भिनुसार भयो । तारागण सब गगन छपाने अरुन उदित अंधकार गयो । जागी महरि काज गृह लागी निशिको सब दुख भूलि गयो । प्रातस्नान करन यमुनाको नंदहि तुरत उठाइ दयो। मथनिहारि सब ग्वालि वोलाई भोर भयो उठि मथो दह्यो। सूर नंद घरनी आपुनहू मथति मथानी नेति गह्यो ॥२६॥ अथ कंस कमलकं फूल मंगाए, कालीदमन ललिा अध्याय पोडशी ॥ विलावल ॥ नारदसों नृप करत विचार । ब्रजमें ये दोउ कोउ अवतार ॥ नंदसुवन वलराम कन्हाई । इनकी गति मैं कछू न पाई॥ तृणा वर्त सों दूत पठाए । तापाछे कागासुर धाए ॥ वाकी पठाइ दई पहिलेही। ऐसेनको बलु वैसेहिलेही । उनते भछू भयो नहिं काजा । यह सुनि सुनि मोह आवति लाजा॥अव मुनि तुम इक बुद्धि विचारहु । सुरश्याम बलरामहि मारहु ॥२६॥ नारद ऋपि नृपसां यह भापत।वैहैं काल तुम्हारे प्रगटे काहेत्रे तुम उनको रासत ॥ कालीउरग रह्यो यमुनामें तहँते कमल मँगावहु । दून पठाय देहु ब्रजऊपर नंदहि अति डरपावहु ।। यह सुनिकै बज लोग डरेंगे वोउ सुनिहैं यह बात । पुहुप लेन जैहैं नंद ढोटा उरगकरै तहां घात ॥ यह सुनि कंस बहुत सुखपायो भलीकही इह मोहि। | सूरदास प्रभुको मुनि जानत ध्यान करत मनएहि ॥२७॥ सूहो। कंस बुलाइ दूत एक लीन्हो । ।