पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२६७

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(१७४) सूरसागर। खेले सो सुरत्यो नहिं आवै ॥ तेरे नीर शुची जवलोहै खार पनार कहावे । हरि वियोग कोल पाँउ न देह को तट वेणु वजावै ॥ भरि भादौं जो राति अष्टमी सो दिन क्यों न जनावै । सरदास के ऐसे ठाकुर कमलफूल लैआवै ॥ ६॥ ब्रजवासी सब भए विहाल । कान्ह कान्ह कहि कहि टेरतहैं व्याकुल गोपी ग्वाल ॥ अव को वस जाइ ब्रज हरि विनु धृगजीवन नर नारी। तुमविन यह गतिभई सबनिकी कहां गए बनवारी ॥ प्रातहिते जल भीतर पेठे होन लग्यो युगयाम । कमल लिये सूरज प्रभु आवत सबसों कहि वलराम ॥ ६८ ॥ नट । आवत उरग नाथे श्यामानंद यशोदा गोपी गोपनि कहतहैं वलराम ॥ मोर मुकुट विसाल लोचन श्रवन कुंडल लोल । कटि पीतांवर भेप नटवर नित फन प्रति डोल । देव दिवि दुंदुभि वजावत सुमन ये वरपाइ । मुरझ्या मविलोकि ब्रजजन मात पित सुख पाइ ॥ ६९ ॥ नट ॥ मात पिता मन हरप वढायो । मोर मुकुट पीतांवर काछे देख्यो अतिहि निकट जब आयो।देव दुंदुभी बजावत गावत फनपर निर्तत श्याम ब्रजवासी सब मरत जिवाए हरपि उठी सब वाम ॥ सोकसिंधु वहिगयो तुरतही सुखको सिंधु वढायो। सूरदास प्रभु कंसनिकंदन कमल उरग पर ल्यायो ।७० ॥ कान्हरी ॥ फनफन प्रति निर्तत नंदनंदन । जल भीतर युगयाम रहे कहुँ मिट्यो नहीं तनु चंदन ।। उहै काछनी कटिपीतां। वरशीश मुकुट अति सोहतामनो गिरि ऊपर मोर अनंदित देखत ब्रजजन मोहताअमर थके अमर । ललना सँग जयजयध्वनि तिहुँलोकासूरश्याम काली पर निर्तत आवत बनकी चोक ॥७॥सोरट ॥ ! गोपालराइ निर्तत फन प्रति ऐसेमिनो गिरिवर पर चादर देखत मोर अनंदत जैसे ॥ डोलत मुकुट शीशपर हरिके कुंडल मंडित गंडापीत वसन दामिनि तनुवनपर तापर सुरकोदंडीरगनारि आगे सब ठाडी मुख सुख स्तुतिगा।सुरश्याम अपराध क्षमहु अब हम माग्यो पतिपासहुत कृपा एहि : करीगुसांई इतनी कृपा करी नहिं काहू जितने लिये राखि शरनाईकृपाकरी प्रहादभक्तको द्रुपदसुता पतिराखी ग्राहमुखते गजराज छडायो वेद पुराणन भापी। जो कछु कृपा करी कालीको सो काह। नहिं कीन्हों।कोटिब्रह्मांड रोमप्रति अंगनि ते पग फन प्रति दीन्होधरणि शीशधार शेप गर्व कार येही भार अधिक संभारयो । पूरण कृपाकरी सूरजप्रभु पग फन फन प्रतिधारयो । ७३ ॥ सारला ठाढे देखतहैं ब्रजवासी । करजोरे अहिनारि विनयकर कहत धन्य अविनासी ॥ जे पद कमल रमाउर राखति परसि सुरसरी आई । जे पद कमल शंभुकी संपति फल प्रति धरे कन्हाई ॥ जे पद परशि शिलाउद्वारी पांडवगृह फिरिआए ॥ जे पद कमल भजन महिमाते जनप्रहलाद बचाए । जे पद ब्रज युवतिन सुखदायक तिहूँ भुवन धरे बावन ॥ सूरश्याम ते पद फन फन प्रति नितंत आहे कियो पावन ॥७४॥ ऐसी कृपा करी नहि काहू । संभ प्रगटि प्रहाद बचायो ऐसी कृपा न ताहू ॥ ऐसी कृपा करी नाहं गजको पाँइ पयादे धाए । ऐसी कृपा तब नहिं कीन्हीं नृप वंदीते छडाए ॥ ऐसी कृपा करी नहिं तव तिय नगनसमय पति राखी । ऐसी कृपा करी नहिं भीषम परतिज्ञा सतभापी। पूरण कृपानंद यशुमतिको सो पूरण एहि पायो । सुर दास प्रभु धन्य कंस जिन तुमसों कमल मँगायो । ७५ ॥ कान्हरो । सुनहु कृपानिधि जैसी कृपा तुम या काली पै कीन्हो । इती वडाई कबहुँ न कैसो नहिं काहूको दीन्हो ॥ जिन पदकमल सुकृत जलपरस्यो अजहुँ धरे शिवशीशा तेपद प्रगटधरे फन फन प्रति धन्य कृपा जगदीशायेक अंडको भार बहुतहै गर्व धरयो जिय शेष। यही भार आधिक सह्यो अपने शिर अमित अंडमय भेप।। सुर! । नर असुर कीट पशु पंछी सब सेवक प्रभु तेरे । सूरश्याम अपराध क्षमहु अव या अपने !