पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२७२

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- - दशमस्कन्ध-१० (१७९) दुख सों मरन सुख मन करि देखहु ज्ञान । व्याकुल धरणी गिरि परे नंदभए विनप्राण ॥३७॥ हरिको अग्रजबंधु तुरतही पिता जगायो। माताको परवोधि दुहुनि धीरज धरवायो । मोहिं दोहाई नंदकी अवहीं आवत श्याम । नाथि नाग लैआइहैं तब कहियो बलराम ॥ ३८ ॥ हलधर करो सुनाइ नंद यशुमति ब्रजवासी । वृथा मरत केहिकान मरै क्यों वह अविनाशी ॥ आदिपुरुष मैं कहतहौं गयो कमलके काज । गिरिधरको डर करतही वह देवन शिरताज ॥ ३९ ॥ वह अवि. नाश आहि करौ धीरज अपने मन । काली छेदें नाक लिये आवत निर्तत फन॥ कंसहि कमलपठा इहै काली पठ3 द्वीप । येक घरी धीरज धरौ बैठो सव तरुनीप॥४०॥ वहां नागिनिसों कहत श्याम वाम अहि क्यों न जगावै । बालक बालक करति कहा पति क्यों न उठावै ॥ कहा कस कहा उरग यह अवहिं दिखाऊं तोहिं । दै जगाइ मैं कहतहौं तू नहिं जानति मोहिं ॥४१ ॥ छोटे मुंह बड़ीवात कहत अवहीं मरिजैहै ।जोचितवै करिक्रोध अरे इतनहि जरि जैहै ॥छोहलगति तोहिं देखि मोहिं काको वालक आहि । खगपतिसों सरवर करी तू बपुरोको आहि ॥४२॥ वपुरा मोसों कहति तोहिं वपुरी करिडारौं। एक लातसों चापि खसम तेरेको मारौं । सोवत काहू न मारिए चलिआई यह बात । खगपतिको मैंहीं कियो कहति कहा तू वात ॥ ४३ ॥ तुमहिं विधाता भए और कर्ता कोउ नाहीं । अहि मारोगे आप तनकसे तनकसी वाही ॥ कहा करौ कहत न वनै अतिकोमल सुकुमार । देती अवहिं जगाइकै जरिवर होतो छार ॥ १४ ॥ तूधौं देहि जगाइ तोहि दोपन कछुनाहीं । परी कहा तोहि प्यारि पाप अपने जरि जाही ॥ हमको बालक कहतिहै आपु बड़ेकी नारि । बादति है बिनकाजही वृथा बढ़ावति रारि ॥ ४५ ॥ तूही नलेहि जगाइ बहुत जो करत ढिठाई । पुनि मरिहै पछिताइ मात पित तेरे भाई ॥ अजहूं कहो करिजाहि घर तू मरि लेहै सुख कौन । पांच वरषके सातको आगे तोको होन ॥ १६॥ झिरकि नारि दै गारि आपु अहिजाय जगायो । पगसों चापी पूंछ सबै अवसान भुलायो ॥ चरण मसकि धरणीदली उरग गयो अकुलाइ । कालीमनमें तब कही यह आयो खगराइ ॥१७॥ देख्यो नयन उपारि तहां बालक यकठाने । विषधर झटकी पूंछ फटकि सहसौफन काढो। वार वार फनघातकै विपज्वालाकी झार ॥ सहसौफन फन फूंकरै नैक नतनहि लगार ॥ ४८ ॥ तव काली मन कहत पूंछ चांपी एहि पगसौं । अतिहि उठो अकुलाइ डरयो वाहन हरि खगसों। यह बालक धौं कौनको कीन्हो युद्धअघाइ॥ दाँवघाव बहुतै कियो मरत नहीं यदुराइ ॥ १९॥ पुनि देखै हरि ओर पूंछ चांपी इहि मेरी। मन मन करत विचार लेउँ याको मैं घेरी॥ दाउँ परयो अहि जानिकै लियो अंगलपटाइ । काली तव गर्वितभयो प्रभु दियो दाउ बताइ॥५०॥कहति उरगकी नारि गर्व अतिही करि आयो । आइत पहुँचो बाल कालवश पगहि चलायो. ॥ अहिनारिनसों यह कही मोहिं सम सरि कोउ नाहि । एक फूंक विष ज्यालके जल डोंगर जरिजाहि ॥५१॥ गर्व वचन प्रभु सुनत तुरतही तनु विस्तारयो। हाइ हाइ करि उरग वार वारही पुकारयो ॥. शरन शरन अव मरतही मैंनहिं जान्यो तोहिं । चटचटात अंग फूटही राखु राखु प्रभु मोहि ॥५२ ॥ श्रवन शरन ध्वनि सुनत लियो प्रभु तनु सकुचाइ । क्षमहु मोहि अपराध नजाने करी ढिठाइ । ब्रज कृष्ण अवतारहों मैं जानी प्रभु आजु । बहुत किये फन घात मैं वदन दुरावत लाजु ॥५३॥ रह्यो जानि यहि और गरुडको त्रास गोसाई ॥ बहुत कृपा मोहिं करी दरशदीन्हो जग साँई । नाक फोरि फनपर चढे कृपाकरी देवराइ । फन फन प्रति प्रति चरण धरि निर्तत हरप वढाइ ॥५४॥