पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२७३

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(१८०) सूरसागर। धन्य कृष्ण धनि डरग जानि जन कृपा करी हरि । धन्य धन्य दिन आजु दरशते पाप गए जरि। धन्यकंस धनि कमलये धन्य कृष्णअवतार । वडी कृपा उरगहि करी फनप्रति चरण विहार ॥१६॥ शेषकरत जियगर्व अंडको भार शीशधरि । ब्रह्म मुकुंद अनंत नाम को सकै पारकरि । फन फन प्रति अति भार भरि अमित अंडमें गात । उरगनारि करजोरिकै कहत कृष्णसों वात ॥५६॥ देखत ब्रज नर नारि नंद यशुदा समेत सब । संकर्षणसों कहत सुनहु सुत कान्ह नहीं अब । पहि अंतर जल कमल विच उठो कछू अकुलाइ । रोवतते वरजे सवै मोहन अग्रज भाइ ॥२७॥ आवत हैं वे श्याम पुहुप काली शिरलीन्हे । मात पिता ब्रज दुखित जानि हरि दरशनदीन्हे । निर्तत का ली फननिपर देवदुंदुभी वजाइ । नटवर वपु काछे रहे सब देख्योवहभाइ॥५८|आवत देखे श्याम हरष कीन्हो ब्रजवासी । सोक सिंधु बहि गयो सुखको सिंधु प्रकाशी ॥ जलवूडत नवका मिलै ज्यों तनुहोत अनंद । त्यो ब्रजजन हुलसे सबै आवतहैं नंदनंद ॥ ५९॥ सुतदेखत पित मात रोम गदगद पुलकित भयो । उर उपज्योआनंद प्रेमजल लोचन दुहुँअयो। देव दुंदुभी वजावहीं फन प्रति निर्तत श्याम । ब्रजवासी सब कहतहैं धन्य धन्य बलराम ॥६॥उरगनारि करजोरि करति स्तुति मुखठाढी ॥ गोपीजन अवलोकि रूप वह अतिरतिवाढी।सुरअंवर ललना सहित जय ध्वनि मुख मुखगाइ । बडीकृपा एहि उरगको ऐसी काहु नपाइ ॥ ६॥ कृपकरी प्रहाद खंभ वैप्रगट भए तवाकृपाकरी गजराज गरुडतजि धाइ गये जबागुपदसुताको करी कृपाक्सन समुद्रवढाइ । नंदयशोदहि जो कृपा सोई कृपाएहि पाइ॥६॥तव काली करजोरि कह्यो प्रभु गरुड त्रासहै मोहि। अब करिहै ते दंडवत नैन भरि जब देखेंगेतोहि ॥ चरण चिह्न दरशनकरत गहि रहै तेरेपाइ । उरग द्वीपको करिविदा कह्यो करौ सुखजाइ ॥ १३ ॥ प्रभु याने कियो कहा चरण जे फन फन परसे । रमा हृदय जे वसत सुरसरी शिव शिव हरसे॥ जन्म जन्म पावन भयो फनपदचिह्न धराइ। पाँइ परयो उरगिाने सहित चल्यो द्वीप समुहाइ ॥ ६४ ॥ काली पठयो द्वीप सुरनि सुरलोक पठाए । आपुन आए निकास कमल सब तटहि धराए । जलते आए श्याम तब मिले सखा सब धाइ । मात पिता दोउ धाइकै लीनो कंठ लगाइ॥६६॥ फेरि जन्म भयो कान्ह कहत लोचन भरि आए। जहां तहां व्रज गोपनारि आतुर द्वैधाए|अंकम भरि भार मिलतहैं मनो निधनी धन पाइ। मिली धाइ रोहिणि जननि चूमति लेति बलाइ॥६६ासखा दौरिकै मिले गये हार हमपर रिसकरि॥ धनि माता धनि पिता धन्य सोदिन जेहि अवतरि । तुम ब्रजजीवनिप्राणही यह सुनि हँसे गोपाल। कूदिपरे चढि कदमते तुम खेलत ए ख्याल ॥६॥ कालील्याए नाथि कमलताही पर ल्याए। जैसी कहिगए श्याम प्रगट सो हमहिं दिखाए ॥ कंस मरयो निश्चय भई हम जानी ब्रजराज । सिंहिनिको छौना भलो कहा वडो गजराज ॥६८॥ हरि हलधर तब मिले हँसे मनही मन दोऊ। बंधुमिलत सब कहत भेद नहि जान कोऊ ॥ मात पिता ब्रजलोगों हरषि कह्यो नंदलाल । आज रहो वसि सब इहां मेटहु दुख जंजाल ॥ ६९ ॥ सुनि सवहिन सुखकियो आजु रहिए यमुनातट । शीतल सलिल सुगंध पवन सुख तरु वंसीवट ।। नंदघरते मिष्टान्न बहु पटरस लिए मँगाइ । महर गोप उपनंदजे सबको दियो बटाइ ॥ ७० ॥ दुखकीन्हो सव द्वार तुरत सुख दियो कन्हाई ।हर्षभयो बजलोग कंसको डर विसराई । कमलकाज ब्रजमारतो कितने लेइ गनाई। नृप गजको अब डर कहां प्रगट्यो सिंह कन्हाइ ॥७१ ॥ नंदकहो करि गर्व कंसको कमल पठावहु और कमल जल | धरहु कमल कोटिकदै आवड। यह कहियो मेरी कही कमल पठाये कोटि । कोटि द्वैक जलही | -