पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८०

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दशमस्कन्ध-१० (१८७) जलदमलयज प्रबल वलनि अलेश । केकी कच सुरचापकी छवि दशन तडित सपेप । सूर प्रभु अवलोकि आतुर नशे नैन निमेप ॥ ४५ ॥ गौरी ॥ हरि प्रति अंग नागरि निरखि । दृष्टि रोमावली पररहि वनत नाहिन परपि ॥ कोऊ कहत यह काम श्रेनी कोउ कहति नहियोग । कोउ कहति अलिवाल पंगति जुरे एक संयोग । कोऊ कहति अहि काम पठयो डसै जिनि यह काहु । श्याम रोमावलीकी छवि सूर नहीं निवाहु ॥ ४६॥ भासावरी ॥ चतुरनारि सब कहाति विचारि। रोमावली अनूप विराजति यमुनाकी अनुहारि ॥ उर कलिंदते धंसी जलधारा उदर धरणि पर वाह । जातिचली अति तेजलधारा है नभि हृदय अवगाह ॥भुजादंड तट सुभग घटा धन बन माला तरुकूल । मोतिनमाल दुहूंघा मानो फेन लहरि रसफूल|सूरश्याम रोमावलिको छवि देखति करति विचारि । बुद्धि रचति तरि सकति नसोभा प्रेम विवस वजनारि ॥ ४७ कल्याण ॥ रामावली रेख अतिराजत । सूक्षम शेप धूमकी धारा नवधन ऊपर भाजत । भृगुपद रेख श्याम उर सजनी कहा कहीं ज्यों छाजतामनहु मेघ भीतर शशिकी युतिकोटि काम तनुलाजत|मुकतामाल नंदनंदन उर अर्ध सुधा घट कांति । तनु श्रीखंड मेघ उज्ज्वलअति देखि महावल भांतिावरही मुकुटइंद्रधनु मानहु तडित दशनछवि लाजत । यकटकरहीविलोकि सूरप्रभु तनुकीहै कह हाजत॥४८॥ सारंग ।। मुख छवि कहौं कहांलाग माई।मनो कंज परकाशप्रातहीरविशशि होऊ जात छपाईअधरविंव नासा ऊपर मनों शुक चाखनको चोचचलाई। विकसत बदन दशन अति चमकान दामिनि द्युति दुरदेत देखाई। सोभित श्रीकुंडलकी डोलन मकराकृत आति श्रीवनाई। निशिदिनरटत सुरके स्वामी ब्रजव निता देह विसराई४९॥ केदारोगासखीरी सुंदरता को रंग। छिनछिनमांह परतछवि और कमल नयनके अंगा।परमितकरि राख्यो चाहतिहै तुमहुलागि डोलत संग । चलत निमेप विशेष जानियत भूलि भई मतिभंग।श्याम सुभगके ऊपरवारों आली कोटि अनंग । सूरदास कछु कहत नआवै गिराभई गतिपंग॥५०॥ विहागरो ।। श्यामभुजाकी सुंदरताई ।वडे विसाल जानु लों परसत यक उपमा मन आई। मनो भुजंग गगनते उतरत अधमुख रह्यो झुलाई॥चंदनखौरि अनूपम राजत सो छवि कही नजाईरत्नजटित पहुँची कर राजत अंगुरी सुंदरभारी।सूर मनो फनि शिरमणि सोभित फनफनकी छविन्यारी ॥५१॥ धनाश्री ॥ गोपी श्यामरंगभूली। पूरण मुखचंद्र देखि नैन कमल फूली ॥ कीधौं नवजलद स्वाति चातक मनलाये । किधों नारियूँद सीप हृदय हर्पपाये ॥ रवि छवि कुंडल निहा- रि पंकज विगसाने । किधों चक्रवाक निरखि अतिही रतिमाने ॥ कीधौं मृगयूथ जुरे मुरली ध्वनि रोझे । सुरश्याम मुख कुंडल छविकेरस भीजे ।। ५२ ॥ सोरट । वडो निठुर विधना यह देख्यो॥ जवते आज नंदनंदन छवि वारवार करि पेख्यो । नख अंगुरी पग जानु जंघ कटि रचि कीन्हो निर्मान।। हृदयवाहु कर हस्त अंग अंग मुखसुंदर अतिबान । अधर दशन रसना रस वाणी श्रवन नयन अरु भाल । सूर रोमप्रति लोचन देतो देखत वनै गोपाल||१३||गूजरीश्याम अंग युवती निरखि भुलानी। कोउ निरखति कुंडलकी आभा यतनेहि मांझ विकानी।ललित कपोल निरखि कोउ अटकी शिथि- ल भई ज्यों पानी। देह गेहकी सुधि नहिं काहू हरपनको पछितानी ॥ कोउ निरखति रही ललित नासिका यह काहू नहिं जानी । कोउ निरखति अधरनकी सोभा फुरत नहीं मुखवानी ॥ कोउच कृतभई दशन चमकपर चकचोंधी अकुलानी। कोउ निरखवि द्युति चिबुक चारुकी.सूर तरुनि विततानी ॥ ५४॥ नट ॥श्यामकर मुरली अतिहि विराजत । परसत अधर सुधारस प्रगटत मधुर मधुर सुर वाजतालिलकत मुकुट भौंहछवि मटकत नैन सैन अतिछाजत ।ग्रीवनवाइ अटकि वंसी