पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२८५

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अवार ॥ सूरदास प्रभु मन हरिलीन्हों मोहन नंदकुमार।।९॥ गूजरी।सैनदै प्यारी लई वोलाई खेल नको मिस करिकै निकसे खरिकहिगए कन्हाई॥यशुमतिको काहि प्यारी निकसी घरको नाउँ सुनाइ कनक दोहनी लिये तहां आई जहां हलधरको भाइ । तहां मिली सब संग सहेली कुँवरि कहां तूआई। प्रातहि धेनु दुहावन आई अहिरनहीं तहां पाई। तबहिं गई मैं ब्रज उतावली ल्याई ग्वाल बुलाइ । सूरश्याम दुहि देन कह्यो सुनि राधागई.मुसकाइ ३.९५ ॥ धनाश्री ॥ धेनु दुहन जब श्याम बोलाई। श्रवन सुनत तहां गई राधिका मनहरिलियो कन्हाई ।। सखी संगकी कहति. परस्पर कह यह प्रीति लगाई। यह वृषभानु पुराये ब्रजमें कहा दुहावन आई। मुख देखत हरिको चकृत भई तनुकी सुधि बिसराई । सूरदास प्रभुकें रसवशभई काम करी कठिनाई.॥९६ ॥ गाउँवसत एते. दिवसनिमें आजु श्याम मैं देखे। जे दिनगए बिना नजनाथहि तेई वृथा कार लेखे । कहिये जो-का होइ सयानी कहिवेको अनुमान । सुंदर श्याम निकाईको सुख नैनाईपै जान ॥ तवते रूप ठगोरी लागी युग समान पल बितवति । तजि कुललाज सूरके प्रभुको फिरि फिरि मुखतन चितवति ॥ ॥९७ ॥ देवगंधार ॥ मोहन करते दोहनिलीनी गोपद बछरा जोरे। हाथ धेनु थन बदन त्रियातनु. क्षीर छीटि छल छोरे ॥ आनन रही ललितपै छोटै छाजति छवि तृण तोरे। मनहुँ निकसि निक लंक कलानिधिं दुग्ध सिंधके बोरे ॥दै चूंघट पट वोट नील हसि कुँवरि मुदित मुख मोरे । मनहुँ शरद शशिको मिलि दामिनि रिलियो घन घोरे ॥ यहिविधि रहसति विलसति दंपति हेतु हिये नहि थोरे । सूर उमाँगि आनंद सुधानिधि मनो विलावल फोरे॥९८॥ रामकली ॥हरिसों धेनु दुहावत प्यारी । करति मनोरथ पूरण मन वृषभानु महरकी नारी ॥ दूधधार मुख पर छवि लागति सो उपमा अतिभारी। मानो चंद कलंकहि धोवत जहां तहां बूंद सुधारी हावभाव रस मगन द्वै दोऊ छवि निरखतिललितारी । गौदोहन सुखकरत सूर प्रभु तीनिहु भुवन कहारी ॥ ९९ ।। सूहो ॥ तुम कौन दुहावै गैया । लिहै रहत कर कनकदोहनी बैठतही अधपैया ॥ अति रस कामकि प्रीति जानिकै आवत खरकहुहैया । इत चितवत उतधार चलावत एहि सिखयो है मैया ॥ गुप्त प्रीति तासों कर मोहन जोहै तेरी दैया। सूरदास प्रभु झगरो सीख्यो ये जोधर ख़सम गुसैया७००॥ धनाश्रीकरिरी न्यारी हरिआपनगैया निहिन बसात लाल कछु तुमसों सवे ग्वाल इकठ्यांनिहिन अधिक तेरे बाबाके नहिं तुम हमरे नाथ गुसयां।हम तुम जाति पांतिके एकै कहाभयो आधिकी द्वैगैंया ॥ जादिनते सवरे गोपनमें तादिनते करत लँगरैया ॥ मानीहार सूरके प्रभु. सों बहुरि न करिहो नंदहुहैया ॥ १ ॥ सूहो ॥धेनु दुहत अतिही रिसवाढी। एकधार दोहनी पहुँचावत एकधार जहां प्यारी ठाटी॥ मोहन करते धार चलत पय मोहनी मुख अतिही छविगाठी। मनो जलधर जलधार वृष्टि लघु पुनि पुनि प्रेमचंदपर. वाढी ॥ सखी संगकी निरखति यह. छवि भई व्याकुल मन्मथकी डाठी। सूरदास प्रभुके वशभई सब भवनकाजते भई उचाठी ॥२॥ ॥ बिलावल ॥ दुहिदीनी राधाकी गैयां । दोहनी नहींदेत करते हरि हाहाकरति परतिहै पैयां ॥ ज्यों ज्यों प्यारी हाहा बोलति त्यों त्यों हँसत कन्हैया । बहुरि करौ प्यारी तुम हाहा देहौं नंददुहैया ॥ तब दीनी प्यारी कर दोहनी हाहा बहुरि करैया। सूरझ्याम रस हावभाव करि दीनी कुँवर पठेया ॥३॥ चलन चहति पग चलै नघरको । छांडत बनत नहीं कैसेहू मोहन सुंदरवरको ॥ अंतर . नेक करूं नहिं कवह सकुचतिहौं पुरनरको । कछदिन जैसे तैसे खोऊं दूरिकरौं पुनि डरको ॥ मन ॥ में यह विचार कार सुंदर चली आपने पुरको। सूरदास.प्रभु कह्यो जाहु घर घात करयो नख: ।