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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९०

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दशमस्कन्ध-१०


नयन तटपरहैं ठाढे सकुचहिं मिलि व्रजनारी। सूरदास प्रभु अंतर्यामी व्रजपूरण पगधारी॥४४॥ नट ॥ बनत नहीं यमुनाको ऐबो। सुंदर श्याम घाटपर ठाढे कहौ कौन विधि जैबो॥ कैसे वसन उतारि धरैं हम कैसे जलहि समैवो। नँदनंदन हमको देखैंगे कैसे करिजो अन्हैबो। चोली चीर हार लै भाजत सो कैसे कार पैबो। अंकम भार भार लेत सूर प्रभु कालि नएहिपथ औबो॥ राम कली ॥ कैसे बनै यमुना स्नान॥ निंदको सुत तीर बैठो बड़ो चतुर सुजान॥ हारतोरैं चीर फारै नयन चलै चुरा इ॥ कालिधोखे कान्ह मेरी पीठि मीजै आइ। कहति युवती बात सुनि सव थकित भई ब्रजनारा। सूर प्रभुको ध्यान धर मन रविहि बांह पसारि॥४५॥ गूजरीराग ॥ अति तप करति घोषकुमारि कृष्णपति हम तुरत पावैं कामआतुरनारि॥ नैनमूँदति दरश कारण श्रवण शब्द विचारि। भुजा जोरति अंक भरि हरि ध्यान उर अंकबारि॥ शरद ग्रीषम डरति नाहीं करति तपु तनुगारि। सूर प्रभु सर्वज्ञ स्वामी देखि रीझे भारि॥४६॥ धनाश्री ॥ ब्रजवनिता रविको करजोरै। शीत भीत नहिं करति छहौऋतु त्रिविधकाल यमुनाजल खौरे॥ गौरीपति पूजति तपसाधति करति रहति नित नेमू। भोग रहित निशि जागि चतुर्दशि यशोमति सुतके प्रेमू॥ हमको देहु कृष्णपति ईश्वर और नहीं मनआन। मनसा बाचा कर्मणा हमारे सूरश्यामको ध्यान॥४७॥ नीके तप कियो तनुगारी आपु देखत कदमपर चढ़ि मानि लई सुरारि॥ वर्षभार व्रतनेम संयम श्रम कियो मोहिंकाजा कैसेहु मोहिं भजै कोउ मोहिं विरदकी लाज॥ धन्य व्रत इन कियो पूरण शीततपनि निवारि। कामआतुर भजैं मोको नवतरुनि ब्रजनारि॥ कृपानाथ कृपालु मय तव जानि जनकी पीर सूरप्रभु अनुमान कीन्हो हरों इनकोचीर॥४८॥विलावला॥ बसन हरे सब कदम चढ़ाये। सोरह सहस गोप कन्यनके अंग अभूपन सहित चोराये॥ आति विस्तार नीपतरु तामे लै लै जहां तहां लपटाये। मणिआ भरन डार डारनप्रति देखत छवि मनही अटकाए॥ नलिांबर पाटंबर सारी श्वेत पीत चूनरी अरु नाए। सूरश्याम युवतिन व्रत पूरनकोकल कदमडार फललाए॥४९॥सुगही॥ आपु कदम चढ़ि देखत श्याम। वसन अभूपन सब हरि लीन्हे बिना वसन जलभीतर वाम॥ मूंदत नयन ध्यान धरि हरि को अंतर्यामी लीन्हो जान॥ बारबार सवितासों मांगै हम पावैं पति सुंदरश्याम। जलते निकसि आइ तट देख्यो भूपण चीर तहां कछु नाहिं। इत उत हेरि चकृतभई सुंदरि सकुचिगई फिरि जलही माहिं॥ नाभि प्रयंत नीरमें ठाढ़ीं थरथर अंग कँपति सुकुमारि। को लैगयो वसन आभूपन सूरश्याम उर प्रीति विचारि॥५०॥आवहु निकसि घोपकुमारि। कदमपरते दरशदीन्हों गिरिधरन बनवारि॥ नैन भरि व्रतफलीह देख्यो करयोहै द्रुमडार। व्रत तुम्हारो भयो पूरण कह्यो नंदकुमार॥ सलिलते सब निकसि आवहु वृथा सहत तुपार। देतहौ किन लेउ मोसों चीर चोली हार॥ वांह टेकि विनयकरौं मोहि कहत वारंवार। सूरप्रभु कह्यो मेरे आगे आनि करहु श्रृंगार॥५१॥ रामकली ॥ ग्वालिन अपनो चीर लैरी। जलते निकास निकसि तट द्वौकर जोरि शीश दैरी॥ कतहौ शीत सहति ब्रजसुंदरि व्रतपूरण भैरी। मेरे कहे आइ पहिरोपट कृपतनु हेम जरैरी॥ हौ अंतर्यामी। जानत सब अति यह पैज करैरी। करिहौं पूरणकाम तुम्हारो शरद रास टेरी॥ संतत सूर स्वभाव हमारो कत भय काम डरी। कवनेहुँ भाव भजै कोउ हमको तिन तनु ताप हरैरी॥५२॥ हमारो अंबर देहु मुरारी। लै सब चीर कदम चढि बैठे हम जल मांझ उघारी॥ तुमतौ कहावतहौ नँदनंदन हम वृपभानु दुलारी। तुम्हरोतौ अंबर जबहीं दैहौं जलते निकास होहु सब न्यारी॥ तटपर विना वसन क्यों आवैं लाज लगतिहै भारी। चोली हार तुमहिको दीन्हो चीर हमहि देहु डारी॥ तुम