पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९०

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दशमस्कन्ध-१० (१९७) | नयन तटपरहें ठाढे सकुचाहि मिलि ब्रजनारी । सूरदास प्रभु अंतर्यामी व्रजपूरण पगधारी ॥४४॥। नयावनत नहीं यमुनाको ऐवो। सुंदर श्याम घाटपर ठाढे कहौ कौन विधि जैवो कैसे वसन उतारि धेरै हम कैसे जलहि समैवो । नँदनंदन हमको देखेंगे कैसे करिजो अन्हैयो । चोली चीर हार लै भाजत सो कैसे कार पेवो । अंकम भार भार लेत सूर प्रभु कालि नएहिपथ अवो ॥ राम कली ॥ कैसे बने यमुना स्नानानिंदको सुत तीर बैठो बड़ो चतुर सुजान।।हारतारे चीर फारै नयन चलै चुरा इकालिधोखे कान्ह मेरी पीठि मीजै आइ। कहति युवती बात सुनि सव थकित भई ब्रजनारािसूर प्रभुको ध्यान धर मन रविहि बांह पसारि ॥ ४५ ॥ गूजरीराग ॥ अति तप करति पोषकुमारि कृष्णपति हम तुरत पावें कामआतुरनारि ॥ नैनमूदति दरश कारण श्रवण शब्द विचारि । भुजा जोरति अंकभार हरि ध्यान उर अंकयारि ॥ शरद ग्रीपम डरात नाही करति तपु तनुगारि । सूर प्रभु सर्वज्ञ स्वामी देखि रीझे भारि ॥ ४६॥ धनाश्री ॥ ब्रजवनिता रविको करजोरै । शीत भीत | नहिं करति छहौऋतु विविधकाल यमुनाजल खौरे ॥ गौरपति पूजति तपसाधति करति रहति | नित नेमू । भोग रहित निशि जागि चतुर्दशि यशोमति सुतके प्रेमू ॥ हमको देहु कृष्णपति ईश्वर और नहीं मनआन । मनसा वाचा कर्मणा हमारे सूरझ्यामको ध्यान ॥४७॥नीके तप कियो तनुगारी आपु देखत कदमपर चढ़ि मानि लई सुरारि ॥वर्षभार व्रतनेम संयम श्रम कियो | मोहिकाजा कैसेहु मोहि भजे कोउ मोह विरदकी लाज ॥ धन्य व्रत इन कियो पूरण शीततपनि निवारिकामआतुर भनें मोको नवतरुनि बजनारि कृपानाथ कृपालु मय तव जानि जनकी पीर सूरप्रभु अनुमान कीन्होहरों इनकोचीरा॥४८॥विलावलावसन हरेसब कदम चढ़ाये। सोरह सहस गोप कन्यनके अंग अभूपन सहित चोराये।आति विस्तार नीपतरु तामेलै लै जहां तहां लपटाये।मणिआ | भरन डार डारनप्रति देखत छवि मनही अटकाए ॥ नलिांवर पाटवर सारी श्वेत पीत चूनरी अरु नाए । सूरश्याम युवतिन व्रत पूरनकोकल कदमडार फललाए॥४९॥सुगही।।आपु कदम चढ़ि देखत श्याम । वसन अभूपन सब हार लीन्हे बिना वसन जलभीतर वाम ॥ मूंदत नयन ध्यान धरि हरि को अंतर्यामी लीन्हो जान ॥ वारवार सवितासों मांगे हम पा पति सुंदरश्याम । जलते निकसि आइ तट देख्यो भूपण चीर तहां कछु नाहि ।इत उत हेरि चकृतभई सुंदरि सकुचिगई फिरि जलही माहि।।नाभि प्रयंत नीरमें गढ़ी थरथर अंग कॅपति सुकुमारि।को लेगयो वसन आभूपन सूरश्याम उर प्रीति विचारि॥५०॥आवहु निकसि घोपकुमारि। कदमपरते दरशदीन्हों गिरिधरन बनवारि॥ नैन भार व्रतफलीह देख्यो करयोहै दुमडार । व्रत तुम्हारो भयो पूरण कह्यो नंदकुमार ॥ | सलिलते सब निकासि आवहु वृथा सहत तुपार । देतही किन लेउ मोसों चीर चोली हार ॥ वाह । टेकि विनयकरौं मोहि कहत वारंवार । सूरप्रभु कह्यो मेरे आगे आनि करहु शृंगार ॥ ११ ॥ रामकली|ग्वालिन अपनो चीर लैरीजलते निकास निकसि तट द्वौकरजोरि शीश दैरीकतही शीत सहति ब्रजसुंदरि व्रतपूरण भैरी । मेरे कहे आइ पहिरोपट कृपतनु हेम जरैरी ॥ हो अंतर्यामी । जानत सब अति यह पैज करेरी । करिहौं पूरणकाम तुम्हारो शरद रास टेरी ॥ संतत सूर स्वभाव हमारो कत भय काम डरी। कवनेहुँ भाव भने कोउ हमको तिन तनु ताप हरैरी ॥५२॥ हमारे अंबर देहु मुरारी । लै सब चीर कदम चढि बैठे हम जल मांझ उघारी।तुमतौ कहावतही नंदनंदन हम वृपभानु दुलारी । तुम्हरोतो अंबर जवहीं देहौं जलते निकास होहु सब न्यारी ॥ तटपर विना वसन क्यों आवे लाज लगतिहै भारी। चोली हार तुमहिको दीन्हो चीर हमहि देहु डारी ॥ तुम --