पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९१

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- । (१९८) यह बात अचंभवः भाषत नांगी आवहु नारी । सूरश्याम कछु छोह करौजू शीतगई तनमारी ॥ ॥५३॥ आसावरी ॥ हाहाकरति घोषकुमारि। शीतते तन कैंपत थर थर वसन देहु मुरारि ॥ मनहि मन अतिही भयो सुख देखिकै गिरिधारि । पुरुष स्त्री अंग देखै कहत दोपहै भारि । नेकनहिं तुम छोह आवत गई हिम सब मार। सूर प्रभु अतिही निठुरहो नंदसुत वनवारि॥५४॥बिलावल ॥ लाज ओट यह दूरि करौ। जोई मैं कहौं करौ तुम सोई सकुच वापुरेहि कहाकरौ ॥ जलते तीर आइ कर जोरहु मैं देखौं तुम विनयकरौ । पूरण व्रत अव भयो तुम्हारो गुरुजन शंका रिकरौ ॥ अब अंतर मोसों जिन राखौ बारवार हठ वृथा करौ। सूरश्याम कह चीर देतही मो आगे शृंगारकरी॥ ॥६५॥ जलते निकास तीर सब आवहु । जैसे सवितासो करजोरे तैसेहि जोरि देखावह ॥ नव वाला हम तरुन कान्ह तुम कैसे अंगदिखावें । जलहीमें सब बाँह टेकिकै देखहु श्याम रिझाऐसे नहि रीझौं मैं तुमको तटही बांह उठावहु । सूरदास प्रभु कहत हार चोली वस्त्र तव पावहु ॥५६ विलावल ॥ हमारो देहु मनोहर चीर । कांपत शीत तनहि अति व्यापत हिम सम यमुनानीर। मान हिंगी. उपकार रावरो करो कृपा बलवीर । अतिही दुखित प्राणवपु परसत प्रबल प्रचंड समीर ।। हम दासी तुम नाथ हमारे विनवति जलमें ठगीमानहुं विकास कुमोदिीन शशिसों अधिक प्रीतिः । उर बाढीजो तुम हमै नाथ कैजान्यो यह मांगे हम देहाजलते निकसि आइ वाहेरवैवसन आपने लेहु।। कर धरि शीशगई हरि सन्मुख मनमें करि आनंद । खै कृपालु सूरज प्रभु अंबर दीने परमानंद॥७॥ जैतश्री। तरुनी निकास निकसि तट आई।पुनि पुनि कहत लेहु पट भूषण युक्ती श्याम बुलाई।जलते । निकसि भई सब ठगढ़ी कर अंग ऊपरदीन्हे । बसन देहु आभूषन राखहु हाहा पुनि पुनि कीन्हें ॥ । ऐसे कहावतावतिही मोहिं बांह उठाय निहारो । करसों कहा अंग उर सूदौ मेरे कहे उघारौ ॥ सूरश्याम सोई हम करिहैं जोइ जोइ तुम सब कैहौ।लेहैं दाउँ कबहुँ हम तुमसों वहरि कहां तुम जैहो॥ ॥२८॥ रामकली ॥ ललना तुम ऐसे लाड़ लड़ाए। लेकर चीर कदमपर बैठे किहि ऐसे ढंग लाए। हाहाकरति कंचुकी मांगति अंबर दिए मन भाए । कीनी प्रीति प्रगट मिलिवेकी अखियन-शमें गमाए । दुख अरु हाँसी सुनहु सखीरी कान्ह अचानक आए । सूरदासके प्रभुको मिलनो अब कैसे दुरत दुराए ॥१९॥नासोरहसहस घोषकुमारि । देखि सबको श्याम रीझे रही मुजा पसारि। वोलि लीन्हो कदमकेतर इहां आवहु नारि । प्रगट भए तहां सवनिको हरि काम इंद्र निवारि..! पसन भूषन सवन पहिरे हरषभै सुकुमारि । सरप्रभु गुण भलेहैं सब. ऐसे तुम बनवारि ॥ ६० ॥ दृढवत कियो मेरे हेत । धन्य धन्य कहि नंदनंदन जाहु सबै निकेत ॥ करौं पूरण काम तुम्हरो शरदरास रमाइ। हरषभई यह सुनत गोपी रही शीशनवाइ॥ सबनिका।। अंग परस कीन्हो ब्रत कियो तनुगारि । सूर प्रभु सुख दियो मिलिकै ब्रजचली सुकुमारि ॥६३ ॥ सूही ॥ ब्रत पूरण कियो नंदकुमार । युवतिनके मेटे जंजार ॥ जप तप करि अब तन जिनिगारो। तुम घरनि मैं भर्ता तुम्हारो।।अंतर शोच दूरि कार डारह । मेरो कह्यो सत्य उर धारहुशरद रास तुम आश पुरावहुँ । अंकम भरि सबको उरलाव यह सुनि सवं मन हर्ष बढायो। मन मन कहो। कृष्णपति पायो । जाहु सबै घर घोषकुमारी शरदरास देहौं सुखभारी।सूरश्याम प्रगटे गिरिधारा आनंद सहित गई घर नारी॥६२॥ आसावरी ॥ शिवशंकर हमको फल दीन्हो । पुहुप पान नाना॥ रस मेवा षटरस अर्पण लैलै कीन्होपाँइ परी युवती सब यह कहि धन्य धन्य त्रिपुरारी।तुरतहि फल | पूरन हम पायो नंदसुवन गिरिधारी॥ विनय करति सविता तुमसरिको पयअंजलि करनार।।