पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९५

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- (२०२) सूरसागर। शीश उठायों॥ घरको चली जाइ तापाछे शिरते घट ढरकायो ॥ चतुरग्वालि करगलो. श्याम । को कनक लकुटिआ पाई । औरनिसों कर रहे अचगरी मोसों लगत कन्हाई गागरिलै हँसिदेत ग्वालिकर रीतो घटनहि लेहौं । सूरश्याम ह्यां आनि देहु भरि तबहिं लकुट कर देहौं ॥६९ ॥ राग कल्याण ॥ लकुट करकी हौं तब देहों घट मेरो जब भारदेहो । कहा भयो जो नंद बडे वृषभानु आन हमहूं तुम सीहैं समसरि मिलि करिकहौं । एक गाँव एक ठाँवको वाप्त येक तुम कैहो क्यों मैं सहौं । सूरश्याम मैं तुम न डरैहौं जवावको जवाब देहौं।॥७०॥ वट भरिदेहु लकुट तव.. देहौं। हमहूँ वडे महरकी बेटी तुमको नहीं डरैहौं । मेरी कनकलकुटिआ दैरी मैं भरिदेहौं नीर । विसरि गई सुधि तादिनकी तोहि हरे वसनके चीर ॥ यह वाणी सुनि ग्वारि विवसभई तनुको मुधि : विसराइ । सूर लकुट कर गिरत नजानी श्याम ठगौरी लाइ ॥ ७१ ॥ हमीर ॥. घटभरि दियो श्याम उठाइ । नेक तनुकी सुधि नताको चली ब्रज समुहाइ ॥ श्याम सुंदरनयन भीतर रहे आनि समाइ । जहां जहां भीर दृष्टि देखौं तहां तहां कन्हाइ ॥ उतहिते एक सखी आई कहति कहा भुलाइ । सूर अवहीं हँसत आई चली कहा गँवाइ ॥ ७२ ॥ टोडी ॥ अवहिं गई जल भरन अकेली अरीहो श्याम मोहनी घालीरी । नँदनंदन मेरी दृष्टि परे आली फिरि चितवन उर शालीरी॥ कहारी कहौं कछु कहत न वनि आवै लगी मरमकी भालीरी। सूरदास प्रभु मन हरि लीन्हो विवस... भईहौं कांसों कहों आलीरी ॥७३॥ धनाश्री ॥ सुनत बात यह सखी अतुरानी। ताहि वाह गहि घर पहुँचाई आपु चली यमुनाके पानी ॥ देखे आइ तहां हरि नाही चितवति जहां तहां विततानी।। जलभरि ठठकत चली घरहि तन वार वार हरिको पछितानी ॥ खालिनि विकल देखि प्रभु प्रगटे हर्ष भयो तन तपति बुझानी। सूरझ्याम अंकम भरि लीन्ही गोपी अंतरगतिकी जानी ॥ ७४ ॥ आसावरी ॥ मिलि हरि सुख दियो तेहि वाल । तपति मिटिगइ प्रेम छाकी भई रस बेहाल|मगनहीं डग धराति नागरि भवनगई भुलाई। जलभरन ब्रजनारि आवति देखि ताहि वोलाइ ॥ जाति कितहै डगर छाँडे कह्यो इतको आइ । सूर प्रभुके रंग राची चितै रही चितलाइ ॥ ७ ॥ धनाश्री ॥ काहू तोहिं ठगोरी लाई। बूझति सखी सुनति नहिं नेकहु तुही किधौं ठग मूरी खाई ॥ चौंकिपरी सपने जनु जागी तब वाणी कहि सखिन सुनाई । श्याम वरन एक मिल्यो ढोटौना तेहि मोको मोहनी लगाई ॥ मैं जलभरे इतहिको आवति आनि अचानक अंकम लाई । सूर ग्वारि सखियनके आगे बात कहै सब लाज गवाई ॥ ७६ ॥ टोडी ॥ आवतही यमुना भरे पानी। श्याम वरन काहूको ढोटा निरखि वदन घरगई भुलानी ॥ उन मोतन मैं उन तन चितयो तब हीते उन हाथ विकानी । उर धकधकी टकटकी लागी तनु व्याकुल मुख फुरत नवानी ॥ कयो मोहन मोहनी तूकोहै या ब्रजमें नहिमैं पहिचानी । सूरदास प्रभु मोहन देखत जनु वारिध जल बूंद हेरानी॥ ७७॥ नेक न मनते टरत कन्हाई। यक ऐसेहिं छकि रही श्यामरस तापर इह ।। इहि बात सुनाई । वाको सावधान करि पठयो चली आपु जलको अतुराई । मोर मुकुट पीतांवर काछे देख्यो कुँवर नंदको जाई ॥ कुंडल झलकत ललित कपोलनि सुंदर नैन विसाल सुहाई। कह्यो सूर प्रभु एढंग सीखे ठगत फिरत हो नारि पराई ।। ७८ ॥ कहा ठग्यो तुम्हरो ठगि लीन्हो क्योंनहिं ठग्यो और कहा ठगिहौ औरहिके ठग तुमको चीन्हों ।। कहो नाउ धरि कहा ठगायो । सुनिराखै यह वाताठगके लक्षण मोहि बतावहु कैसे ठगके घाताठगके लक्षण हमसों सुनिए मृदु-मुस कनि मनचोरत ॥ नैन सैनदे चलत सूर प्रभु अंग त्रिभंग करि मोरता॥७९॥राग सुही।।अतिहि करत