पृष्ठ:सूरसागर.djvu/२९८

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दशमस्कन्ध-१० (२०५) सूर प्रभुको प्रिया राधा भरत जल मुसुकाइ ॥१॥ गूनरी ॥ घरहि चली यमुना जल भरिकै । सखियन बीच नागरी बिराजति भई प्रीति उर हरिकै ॥ मंद मंद गति चलत अधिक छवि अंचल रह्योहफरिकै । मोहन मोको मोहनी लगाई संगहि चले डगरिकै ॥ बेनीकी छवि कहत नआवे रही नितंवनि रिकै । सूरश्याम प्यारीके वशभए रोम रोम रस भरिकै॥ २॥ जयतश्री ॥ गागीर नागार जल भरि घर लीन्हें आवै। सखियन बीच भरयो घट शिरपर तापरनैन चलावै ॥दुलतिग्रीव लटकति नकवेसरि मंद मंद गति आवै ।भ्रुकुटी धनुष कटाक्षवाण मनो पुनि पुनि हरिहि लगावै ॥ जाको निरखि अनंग अनंगत ताहि अनंग वढावै। सूरश्याम प्यारी छवि निरखत आपुहि धन्य कहावै॥३॥ गागरि नागरि लिये पनिपटते चली घरहि आवै । ग्रीवा डोलत लोचम लोलत हरिके चितहि चुरावै ॥ ठठकति चलै मटकि मुँह मोरे वंकट भौंह चलावै ।मनहु काम सैना अंग सोभा अंचल ध्वज फहरावै॥ गति गयंद कुच कुंभ किंकिनी मनहुँ घंट झहनावै ॥ मोतिनहार जलाजल मानौं खुमीदंत झलकावै । मानहु चंद महावत मुख अंकुश करवेसरि लावै । रोमावली सूडि तिरनीलौं नाभि सरोवर आवै ॥ पग जेहार जंजीर निज करयो यह उपमा कछु पावै । घटजल झलकि कपोलनि किनुका मानों मदहि चुरावै ॥ वेनी डोलीत दुहुँ नितंरपर मानहुँ पूंछ हलावै । गज शिरदार सूरको स्वामी देखि देखि सुखपावै॥४॥ सखिअन वीच नागरी आवै । छवि निरखत रीझे नंदनंदन प्यारी मनहि रिक्षावै । कबहुँक आगे कबहुँक पाछे नानाभाव वतावै। राधा यह अनुमान कियो हरि मेरे चितहि चोरावै ॥ आगे जाइ कनक लकुटलै पंथ सँवारि बतावै । निरखत छाँह जहां प्यारीकी तहाँले छाँह छुवावै ॥ छवि निरखत तनु वारत अपनो नागर जियहि जनावै अपने शिर पीतांवर वारत ऐसे रुचि उपजावै । ओढि ओढनियां चलत देखावत यहि मिस निकटहि आवै । सूरश्याम ऐसे भावनिसों राधा मनहि रिझावै ॥५॥ सारंग ॥ लग लागन नहि पावत श्याम । तब एकभाव कियो कछु ऐसो प्यारी तनु उपजायो काम । तब मिसकार निकट आइमुख हेरयो पीतांवर डारयो शिरवारि । यह छल करि मन हरयो कन्हाई. कामविवस कीन्ही सुकुमारि॥ पुलकित अंग अंगिया दरकानी उरआनंद अंचल फहरात । गागरि ताकि कांकरी मारै उचटि उचटि लागत प्रियगात ॥ मोहन मन मोहनी लगाई सखिनसंग पहुँची घरजाइ । सूरदास प्रभुसों मन अटक्यो देह गेहकी सुधि विसराइ ॥६॥ नट ॥ ग्वालिनि चली यमुना वहोरि । वाहि सब मिलि कहत आवहु कछू कहति निहोरं ।। ज्याव देति न हमहि नागरि रही वदन निहोरि । ठगिरही मन कहा. सोचति काहू लियो कछु चोरि ॥ भुजाधरि करि कह्यो चलहि न आवै अवहीं खोरि । सूर प्रभुके चरित सखियन कहत लोचन टोरि ॥७॥ मलार ॥ मेरी गैल नछोंडै सांवरो मैं क्योंकरि पनघट जाउँरी । यहि सकुचनि डरपतिरहों मोहिंधरै नकोउ नाउँरी॥ जित देखों तितदेखे रीरसिया नंदकुमाररी। इत उत नैन चुराइकै मोहिं पलक नकरत जुहाररी॥ लकुट लिये आगे चलेहो पंथ संवारत जाइरी । मोहन निहोरो लाइकै वह फिरि चितवै मुसुका- इरी॥ सौकंचुकि अंचरा उचै मेरो हियरातकि ललचाइरी । यमुनाजल भरि गागरि लै जवाशिर चलत उचाइरी ॥ गागार मारे कांकरी सों लागे मेरे गातरी । गैल माँझ ठाढो रहै मोहिं खंबटै आवत जातरी ॥ हौंसकुचनि वोलों नहीं लोकलाजकी संकरी । मोतन छैव हरि चलै वह छवि भरतुहै अंकरी ॥ निकट आइ मुखनिरखिके सकुचे बहुरि निहाररी । अव ढंग ओढी ओढनी || पीतांवरमांपै वारिरी । जवकहुँ लग लागे नहीं तव वाको जिव अकुलाइरी । तव हठि मेरी छाँहसों ।