काहू पुरुष निवारचो आइ। कहां जात हैरी अतुराइ॥ तिन तो कह्यो न कीन्हो काने। तनु तजि चली विरह अकुलाने। धन्य धन्य वै प्रेम सभागे। मिलीजाइ सबहिनते आगे॥ तब हरि तिनसों कहि समुझाइ। सुनो त्रिया तुम काहे आइ॥ नारी पतिव्रत मानै जोई। चारि पदारथ पावै सोई॥ त्रियन कह्यो जग झूठ सगाई। हमतोहैं तुमरे शरनाई॥ प्रभु पतिव्रत तुम करौ सदाई। तुमको इहै धर्म सुखदाई॥ प्रभु आज्ञालै घरको आई। पुरुष करत तिनकी जु बड़ाई॥ धन्य धन्य तुमहरि दरशन पायो। हम पढि गुनकै सब विसरायो॥ ब्रह्मादिक खोजत नित जिन्हको। साक्षात तुम देख्यो। तिन्हको॥ वै हैं सकल जगतके स्वामी। और सभनके अंतर्यामी। अब हम चरण शरणही आए। तब हरि उनके दोष क्षमाए। ग्वालन मिलि हरि भोजन कीन्हो। भाव तियनको धरि हरि लीन्हो भक्तभावसों जो हरि ध्यावै। सो नर नारि अभै पदपावै॥ इह लीला सुनि गावै जोई। हरिकी
भक्ति सूरते होई॥८२४॥ यज्ञपत्नी वचन ॥ विलावल ॥ जानदे जानदे पियहौं गोपाल वोलाई। और प्रीति प्राणके लालच नाहिन परत दुराई॥ राखौ रोकि बाँधि दृढ़वंधन कैसेहुँ करै जु त्रास॥ वह हठ अब कैसे छूटतहै जब लगिहै उर सास॥ सांची कहौं मन वच क्रम कीर अपने मनकी बात। देहछांडि मिलहि अवहीं छिन तोहि कैसी कुशलात॥ औसर गए बहुरि सुनि सूरज कहा कीजैगी देह। बिछुरति सहति बिरहके शूलनि झुठे सबै सनेह॥२६॥ सारंग ॥ देखनदै पिय मदन गोपालहि। हाहाहो पिय पालागतिहौं जाइ सुनौ वनवेनु रसालहि॥ लकुटलिये काहेको त्रासत पति बिन मति विरहानि वेहालहि। आतिआतुर आरोधि अधिक दुख तोहिं कहाडर तिन यमकालहि। मनतौ पिय पहिलेही पहुँच्यो प्राणतहीं चाहत चित चालहि॥ कहित अपने स्वारथ सुखको रोकि कहा करिहै खल खालहि॥ लेहु सँभारि सुखेह देहकी को राखै इतने जंजालहि। सूर सकल सखियनते आगे। अबहीं मूढ़ मिलति नँदलालहि॥२७॥ सारंगा ॥ देखनदे वृंदावन चंदहि। हाहाकंथ मानि विनती यह कुल। अभिमान छोड़ि मतिमंदाहि। कहि क्यों भूलि धरत जिय औरै जानत नहिं पाँवन नंदनंदहि। दरशन पाइ आइहौं अबहीं करन सकल तेरे दुखद्वंदहि॥ शठ समुझै यहु समुझत नाहिं न खोलत नहीं कपटके। फंदहि। देह छोडि प्राणनि भई प्रापति सूर सुप्रभु आनंद निधि कंदहि॥२८॥ कल्यान ॥ रतिवाढी गोपालसों। हाहा हरिलौं जान देहु प्रभु पद परसतिहौं भालसों॥ संगकी सखी श्याम सन्मुख भई मोहिं परी पशुपालसों। परवशदेह नेह अंतर्गति क्यों मिलौ नयन विसालसों। शठहठ करि तूही पछितैहै इहै भेट तोहिं वालसों। सूरदास गोपी तनु तजि प्रण करयो तनमै भई नंद लालसों॥२९॥ सारंग ॥ पिय जनि रोकहु जानदै। हौहरि विरह जरे जाचतिहौं इतनी बात मोहिं दानदै॥ वैन सुनौ विहरत बन देखो इह सुख हृदय सिरानदै। पुनि जो रुचै सोई तुका जहि साँच कहतिहौं आनदै॥ जो कछु कपट किए याचतिहौं सुनहि कथा हित कानदे। मन क्रम वचन सूर अपनो प्रण राखोंगी तन मन प्रानदे॥३०॥ विलावल ॥ हरि देखनकी साध भरी। जान नदई श्याम सुंदरपै सुनु सोई तै पोच करी॥ कुल अभिमान हटकि हठि राख्यो तै जियमें कछु और धरी। यज्ञ पुरुष तजि करत। यज्ञ विधि तामें कहि कछु चाडढरी॥ कहांलगि समुझाऊं सूर सुनि जाति मिलनकी औधिटरी। लेहु सँभारि देहु पिय अपनी विन प्रमाण सब सौज धरी॥३१॥ हरिह मिलत काहे को फेरी। देखौं बदन जाइ श्रीपतिको जानदेह हौं ह्वैहौं चेरी॥ पालागौं छाँडहु अब अंचल बार बार विनती करौं तेरी। तिरछो करम भयो पूरबको प्रीतम भयो पाँइकी वेरी॥ इहलै देहु मारु शिर अपने जासों कहत कंत तुम मेरी। सूरदास सो गई अगमने सब सखियनसों हरि।
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सूरसागर।
