पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०१

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%5CA- (२०८) सूरसागर। काहू पुरुष निवारचो आइ । कहां जात हैरी अतुराइ ॥ तिन तो कह्यो न कीन्हो काने । तनु तजि | चली विरह अकुलाने । धन्य धन्य वै प्रेम सभागे।मिलीजाइ सबहिनो आगतव हरि तिनसों कहि समुझाइ ।सुनो त्रिया तुम काहे आइ ॥ नारी पतिव्रत मानै जोई । चारि पदारथ पावै सोई । बियन कह्यो जग झूठ सगाई । हमतोहैं तुमरे शरनाई । प्रभु पतिव्रत तुम करौ सदाई । तुमको इहै धर्म सुखदाई ॥ प्रभु आज्ञालै घरको आई। पुरुष करत तिनकी जु बड़ाई॥धन्य धन्य तुमहरि दरशन पायो। हम पढि गुनकै सब विसरायो॥ ब्रह्मादिक खोजत नित जिन्हको । साक्षात तुम देख्यो । तिन्हको ।। हैं सकल जगतके स्वामी । और सभनके अंतर्यामी । अब हम चरण शरणही आए। तब हरि उनके दोष क्षमाए । ग्वालन मिील हरि भोजन कीन्हो । भाव तियनको धरि हरि लीन्हो भक्तभावसों जो हरि ध्यावै । सो नर नारि अभै पदपावै ॥ इह लीला सुनि गावे जोई । हरिकी। भक्ति सूरते होई ।। ८२४ ॥ यज्ञपत्नी वचन ॥ विलावल ॥ जानदे जानदे पियहौं गोपाल वोलाई । और प्रीति प्राणके लालच नाहिन परत दुराई ॥ राखौ रोकि बाँधि दृढ़वंधन कैसेहुँ करै जुत्रास ।। यह हठ अब कैसे छूटतहै जब लगिहै उर सास ॥ सांची कहौं मन वच क्रम कीर अपने मनकी । वात ।देहछाडि मिलहि अवहीं छिन तोहि कैसी कुशलात ॥ औसर गए बहुरि सुनि सूरज कहा कीजैगी देह । विछुरति सहति बिरहके शूलनि झुठे सवै सनेह ॥२६॥ सारंग ॥ देखनदै पिय मदन गोपालहि। हाहाहो पिय पालागतिहौं जाइ सुनौवनवेनु रसालहिलकुटलिये काहेको त्रासत पति विन मति विरहानि वेहालहि । आतिआतुर आरोधि अधिक दुख तोहि कहाडर तिन यमकालहि । मनतो पिय पहिलेही पहुँच्यो प्राणतहीं चाहत चित चालहि ॥ कहित अपने स्वारथ सुखको रोकि कहा क रिहै खल खालहि। लेहु सँभारि सुखेह देहकी को राखै इतने जंजालही सूर सकल सखियनते आगे। अवहीं मूढ़ मिलति नंदलालहि॥२७॥सारंगादेखनदे वृंदावन चंदहिहाहाकंथ मानि विनती यह कुल । अभिमान छोड़ि मतिमंदाहि । कहि क्यों भूलि धरत जिय और जानत नहिं पाँवन नंदनंदाह दरशन पाइआइहौं अवहीं करन सकल तेरे दुखद्वंदहि।।शठसमुझे यह समुझत नाहि न खोलत नहीं कपटके । फंदहि । देह छोडि प्राणनि भई प्रापति सूर सुप्रभु आनंद निधि दहि ॥२८॥ कल्यान ॥ रतिवादी गोपालसों। हाहा हरिलौं जान देहु प्रभु पद परसतिहौं भालसों संगकी सखी श्याम सन्मुख भई मोहिं परी पशुपालसों । परवशदेह नेह अंतति क्यों मिलौ नयन विसालसों । शठहठ करि तूही पछितैहै इहै भेट तोहि वालसों। सूरदास गोपी तनु तजि प्रण करयो तनमै भई नंद लालसों ॥२९॥ सारंग ॥ पिय जनि रोकहु जानदै । होहरि विरह जरे जाचतिहौं इतनी बात मोहिं दानदै ॥ वैन सुनौ विहरत बन देखो इह सुख हृदय सिरानदै । पुनि जो रुचै सोई तुका जहि साँच कहतिहौं आनदै ॥ जो कछु कपट किए याचतिहाँ सुनहि कथा हित कानदे। मन कम वचन सूर अपनो प्रण राखोंगी तन मन प्रानदे ॥३०॥ बिलावल || हरि देखनकी साध भरी। जान नदई श्याम सुंदरपै सुनु सोई तै पोच करी ॥ कुल अभिमान हटकि हठि राख्यो तै जियम कछु और धरी । यज्ञ पुरुष तजि करता यज्ञ विधि तामें कहि कछु चाडढरी ॥ कहांलगि समुझाऊ । सूर सुनि जाति मिलनकी औधिटरी। लेहु सँभारि देहु पिय अपनी विन प्रमाण सव सौज धरी॥३१॥ हरिह मिलत काहे को फेरी। देखों बदन जाइ श्रीपतिको जानदेह हौं हाँ चेरी ॥ पालागों छोडहु अब अंचल बार बार विनती करौं तेरीतिरको करम भयो पूरबको प्रीतम भयो पाँइकी वेरी॥इहल | देहु मारु शिर अपने जासों कहत कंत तुम मेरी। सूरदास सो गई अगमने संब सखियनसो हरि ।