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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०३

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सूरसागर।


सुत लेहु बुलाई॥ सोइ रहौ हमरे पलिका पर कहति महरि हरिसों समुझाई। वरष दिवसकों महा महोत्सव को आवै को कौन सुनाई॥ और महर ढिग श्याम बैठिकै कीनो एक विचार बनाई। सपने आजु मिल्यो मोको इक बड़ो पुरुष अवतार जनाई॥ कहन लग्यो मोसों ए बातैं पूजत हौ तुम काहि मनाई। गिरि गोवर्धन देवनकोमणि सेवहु ताको भोग चढाई॥ भोजन करै सबनिके आगे कहत श्याम यह मन उपजाई। सूरदास गोपन आगे यह लीला कहि कहि प्रगट सुनाई ॥४०॥ धनाश्री ॥ सुनी ग्वाल यह कहत कन्हाई। सुरपतिकी पूजाको मेटत गोवर्धनकी करत बड़ाई॥ फैलि गई यह बात घरनि घर हरि कह जाने देव पुजाई। हलधर कहत सुनौ ब्रजवासी यह महिमा तुम काहु न पाई॥ कोउ कोउ कहत करौ अब ऐसोइ कोउ यह कहत कहै को भाई। सूरदास कोउ सुनि सुख पावत कोउ वरजत सुरपतिहि डराई॥४१॥ मेरो कह्यो सत्यकै जानौ। जो चाहौ ब्रजकी कुशलाई तौ गोवर्धन मानौ॥ दूध दही तुम कितनो लैहो गोसुत बढै अनेक। कहा पूजि सुरपतिको पावै छांडि देहु यह टेक॥ मुँह मांगे फल जो तुम पावहु तौ तुम मानहु मोहिं। सूरदास प्रभु कहत बालसों सत्य वचन कहि दोहि॥४२॥ छांडि देह सुरपतिकी पूजा। कान्ह कह्यो गिरि गोवर्धनते और देव नहिं दूजा॥ गोपनि सत्य मानि यह लीनी बडे देव गिरिराजा। मोहिं छांडि पर्वत पूजतहैं गर्व कियो सुरराजा॥ पर्वत सहित धोइ ब्रजडारौं देउँ समुद्र बहाई। मेरी बलि औरहि लै पर्वत इनको करौं सजाई॥ राखौं नहीं इन्हैं भूतलमें गोकुल देउँ बुड़ाई। सूरदास प्रभु जाके रक्षक संगहि संग रहाई ॥४३॥ विलावल ॥ गोकुलको कुल देवता श्रीगिरिधर लाल। कमल नयन घन साँवरो वपु बाहु विशाल॥ हलधर ठाढे कहतहैं हरिजूके ख्याल। करता हरता आपुही आपुहि प्रतिपाल॥ वेगि करौ मेरो कह्यो पकवान रसाल। वह मघवा बलि लेतुहै नित करि करि गाल॥ गिरि गोवर्धन पूजिये जीवन गोपाल। जाके दीने बाढहीं गैया गण जाल॥ सब मिलि भोजन करतहैं जहँ तहँ पशुपाल। सूर सुरहि डरपत रहै जिय जिय प्रतिबाल॥४४॥ सारंग ॥ तात गोवर्धन पूजहु जाइ। मधुमेवा पकवान मिठाई व्यंजन बहुत बनाय॥ यहि पर्वत तृण ललित मनोहर सदा चरै सुखगाय। कान्ह कहो सोइ कीजिये जैसे मघवा जाइ रिसाय॥ भरि भारि शकट चले गिरि सन्मुख अपने अपने चाय। सूरदास प्रभु अपवश भोगी धरि स्वरूप हरिराय॥४५॥ विलावल ॥ ब्रज घर घर अति होत कोलाहल। ग्वाल फिरत उमँगे जहां तहां सब अति आनंद भरे जु उमाहल॥ मिलत परस्पर अंकम दैदै शकटनि भोजन साजत। दधि लावनि मधु माट धरतलै राम श्याम सँग राजत॥ मंदिरते लै धरत अजिरपर षटरसकी जिवनार। डालन भार अरु कलश नए भरि जोरतहैं परकार॥ सहस शकट मिष्टान्न अन्न बहु नंद महर घरहीको। सूर चले सब लै घर घरते संग सुवन नंदजीको॥ नट ॥ अति आनंद ब्रजवासीलोग। भांति भांति पकवान शकटभीर लैलै चलै छहौरस भोग। तीनि लोकको ठाकुर संगहि तासों कहत सखा हम योग। आवत जात डगर नहिं पावत गोवर्धन पूजा संयोग। कोउ पहुँचे कोउ रेंगत मगमें कोउ घरमें ते निकसे नाहिं। कोउ पहुँचाइ शकट घर आवत कोउ घरते भोजन लैजाहि॥ मारगमें कोउ निर्तत आवत कोउ अपने रस गावत माहि। सूरश्यामको यशुमति टेरति बहुत भीरहै हरि न भुलाहि॥४६॥॥ कान्हरो ॥ शकटसाजि सब ग्वाल चले गिरि गोवर्धन पूजाके काज। घर घरते मिष्टान्न चले लै भांति भांति बहु बाजन बाज॥ अति आनंद भरे गुण गावत उमडे फिरत अहीर। पैड़ो नहिं पावत