पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०३

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(२१०) सूरसागर। सुत लेहु बुलाई। सोइ रहौ हमरे पलिका पर कहति महरि हरिसों समुझाई । वरप दिवसकों महा महोत्सव को आवै को कौन सुनाई ॥ और महर ढिग श्याम वैठिकै कीनो एक विचार बनाई । सपने आजु मिल्यो मोको इक बड़ो पुरुष अवतार जनाई ॥ कहन लग्यो मोसों ए पाते पूजत हौ तुम काहि मनाई । गिरि गोवर्धन देवनकोमणि सेवहु ताको भोग चढाई ॥ भोजन करै सबनिके आगे कहत श्याम यह मन उपजाई । सूरदास गोपन आगे यह लीला कहि कहि प्रगट सुनाई ॥४०॥धनाश्री । सुनी ग्वाल यह कहत कन्हाई । सुरपतिकी पूजाको मेटत गोवर्धनकी करत बड़ाई। फैलि गई यह वात घरनि घर हरि कह जाने देव पुजाई। हलधर कहत सुनौ ब्रजवासी यह महिमा तुम काहु न पाई ॥ कोउ कोउ कहत करौ अब ऐसोइ कोउ यह कहत कहै को भाई । सूरदास कोउ सुनि सुख पावत कोउ वरजत सुरपतिहि डराई ॥४१ ॥ मेरो कह्यो सत्यकै जानौ । जो चाहो ब्रजकी कुशलाई तौ गोवर्धन मानौ ॥ दूध दही तुम कितनो लेहो गोसुत बढे अनेक । कहा पूजि सुरपतिको पावै छोडि देहु यह टेक ॥ मुंह मांगे फल जो तुम पावहु तो तुम मानहु मोहिं । सूरदास प्रभु कहत वालसों सत्य वचन कहि दोहि ॥ ४२ ॥ छांडि देह सुरपतिकी पूजा। कान्ह कह्यो गिरि गोवर्धनते और देव नहि दूजा ।। गोपनि सत्य मानि यह लीनी बडे देव गिरिराजा । मोहिं छांडि पर्वत पूजतहैं गर्व कियो सुरराजा॥ पर्वत सहित धोइ ब्रजडा देउँ समुद्र बहाई । मेरी बलि औरहि ले पर्वत इनको करौं सजाई ॥राखौं नहीं इन्हैं भूतलमें गोकुल देउँ बुड़ाई । सूरदास प्रभु जाके रक्षक संगहि संग रहाई ॥४३॥ बिलावल ॥ गोकुलको कुल देवता श्रीगिरिधर लाल । कमल नयन घन साँवरो वपु बाहु विशाल ॥ हलघर ठाढे कहतहैं हरिजूके ख्याल । करता हरता आपुही आपुहि प्रतिपाल ॥ वेगि करौ मेरो को पकवान रसाल । वह मघवा बलि लेतुहै नित करि करि गाल ॥ गिरि गोवर्धन पूजिये जीवन | गोपाल । जाके दीने बाढहीं गैया गण जाल ॥ सब मिलि भोजन करतहैं जहँ तहँ प शुपाल । सूर सुरहि डरपत रहै जिय जिय प्रतिवाल ॥ १४ ॥ सारंग ॥ तात गोवर्धन पूजहु जाइ । मधुमेवा पकवान मिठाई व्यंजन बहुत वनाय ॥ यहि पर्वत तृण ललित मनोहर सदा चरै सुखगाय । कान्ह कहो सोइ कीजिये जैसे मघवा जाइ रिसायाभरि भारि शकट चले गिरि सन्मुख अपने अपने चायासूरदास प्रभु अपवश भोगी धरि स्वरूप हरिराय ॥४५॥ विलावल ॥ ब्रज घर घर अति होत कोलाहल । ग्वाल फिरत उमँगे जहां तहां सब अति आनंद भरे जु उमाहल । मिलत परस्पर अंकम दैदै शकटनि भोजन साजत । दधि लावनि मधु माट धरतलै राम श्याम सँग राजत ॥ मंदिरते लै धरत अजिरपर षटरसकी जिवनार । डालन भार अरु कलश नए भरि जोरतहैं परकार ॥ सहस शकट मिष्टान्न अन्न बहु नंद महर घरहीको । सूर चले सव लै घर घरते संग सुवन नंदजीको ॥ नट ॥ अति आनंद ब्रजवासीलोग। भांति भांति पकवान शकटभीर लैलै चलै छहौरस भोग । तीनि लोकको ठाकुर संगहि तासों कहत सखा हम योग। आवत जात डगर नहिं पावत गोवर्धन पूजा संयोग । कोउ पहुँचे कोउ रेंगत मगमें कोउ घरमें ते निकसे नाहिं । कोउ पहुँचाइ शकट घर आवत कोउ घरते भोजन लैजाहि ॥ मारगमें कोउ निर्तत आवत कोउ अपने रस गावत माहि । सूरश्यामको यशुमति टेरति बहुत भीरहै हरिन भुलाहि ॥ ४६॥ ॥ कान्हरो ॥ शकटसाजि सव ग्वाल चले गिरि गोवर्धन पूजाके काज । घर घरते मिष्टान्न चले लै भांति भांति बहु बाजन बाजाअति आनंद भरे गुण गावत उमडे फिरत अहीर । पैडो नहिं पावत ।