पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०४

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दशमस्कन्ध-१०

तहां कोऊ व्रजवासिनकी भीर ॥ एक चले आवत जतनको यक बजते बनकाज । सूरदास तहां श्याम सबनिको देखियतहै शिरताज ॥४७॥ नटनारायण ॥ चली घर घरनिते बननारि। मनौं इंद्रवधून पंगति सोभा लागति भारि ॥ पहिरि सारि सुरंग पंचरंग पटदश कारे श्रृंगारािवहै इच्छा सबनिके मन श्यामरूप निहारि । ललिता चंद्रावली सहित राधा संग कीरति महतार । चले पूजा करन गिरिकी सूर सँग नर नारि ॥४८॥ बहुत जुरे ब्रजवासी लोग । सुरपति पूजा मेटि गोवर्धन कीनो यह संयोग । योजन वीस एक अरु अगरो डेरा इहि अनुमान व्रजवासी नर नारि अंत नहिं मानो सिंधु समान। इक आवत बजते इतहीको इक इतने ब्रजजात । नंदलिए तव ग्वाल सूर प्रभु आइ गए तहांपात ॥४९॥ आसावरी ॥ नंद करत गिरिकी पूजा विधि । भोजन सब लै धरे छहौरस कान्ह संग अष्टौसिधि॥ लैले आवत ग्वाल घरनिते भोजन बहुत प्रकार । व्यंजन देखि बहुत सुखपावत तुरत करौ जिवनार ॥ जो हरि कहत करत सोइ सोइ विधि पूजाकी बहु भांति । माखन दधिपे तक धरत लै जोरि जोरि सब पांति|को वरनै नाना विधि व्यंजन जेवन ए नँदनारी॥ सूरश्यामकी लीला अद्भुत कह वरणै मुखचारी ॥५०॥ नटनारायण ।। विप्र बुलाइ लिये नंदराइ । प्रथमारंभ यज्ञको कीनो उठे वेद ध्वनि गाइ ॥ गोवर्धन शिर तिलक वंदियो मेटि इंद्र ठकुराइ । अन्नकूट ऐसो रचि राख्यो गिरिकी उपमापाइ ॥ भाँति भाँति व्यंजन परसाए कापै वरण्योजाइ। सूरश्यामको कहत ग्वाल गिरि जवहीं कहो बुझाइ ॥ ५५ ॥ विलावल।। इंद्र सोचु करि मनहिं आपने चकृत पुनि पुनि बुद्धि विचारत । कहा करत देखौं इनको मैं कौन विलंबु लागत पुनि मारतं॥ अव ए करें आपने मन सुख मोको वनै सम्हारै । तवलौं रहौं पूजि निवरें ये वचिहें वैर हमारे ॥ इतनो सुख इनके कररहै दुख है बहुत अगाध । सूरदास सुरपतिकी वाणी मनही मनकी साध ॥ ५२॥ ॥ गौरी ॥ चढि विमान सुरगणनभ देखत। लीला करत श्याम नवतन यह फिरि फिरि गिरि गोवर्धन पेपत ॥ थकित भए सब जहां तहां मुनिजन और और नर नारि। चितै रहे तव श्याम बदन तन गति मति सुरति बिसारि ।। पूजामेटि इंद्रकी पूजत गिरि गोवर्धनराज । सूरदास सुरपति गर्वितभयो मैं देवन शिरताज ॥५३॥ केदारी ॥ कहत कान्ह नंद वावा आवहु । भोजन परसि धरे सब आगे प्रेम सहित गिरिराज मनावह ॥ और नंद उपनंद बुलाए कह्यो सबनिसों भोग लगावहु । सपने में देखो मेरी मूरति यह रूप धरि ध्यान मनावहु ।। इक मन इक चित करि अर्पनकरौ प्रगट देव तुम दरशन पाव।सूरश्याम कहि प्रगट सबनिसों अपने कर लैलै जु जिमावहु॥५४॥विनती करत सकल अहीर । सकल भीर भरि ग्वाल लेले शिखर डारत क्षीरचल्यौ वहि चहुँ पासते पय सुरसरी जलटारि । वसन भूपन लै चढ़ाए भीर अति नर नारि । मंदि लोचन भोग अप्पयों प्रेमसों रुचि भारि सवनि देखी प्रगट मूरति सहसभुजा पसारिरुचि सहित गिरि सबनि आगे करनि लैलैखाइ। नंदसुत महिमा अगोचर सूर क्यों कहे गाइ ॥५५॥ नट ॥ गिरिवर श्यामकी अनुहारि । करत भोजन अति अधिकई भुजासहस पसारि॥ नंदको कर गहे ठाढ़े यहै गिरिको रूप । सखी ललिता राधिकासों कहति देखि स्वरूपायहै कुंडल यहै माला यहै पीत पिछोरि । शिखर सोभा श्यामकी छवि श्याम छवि गिरि जोरि ॥ नारि वदरौला रही वृपभानु घर रखवारि। तहांते उहि भोग अउ लियो भुजा पसारि ॥ राधिका छवि देखि भूली श्याम निरखी ताहि । सूर प्रभु क्शभई प्यारी कोर लोचन चाहि॥५६॥ धनाश्री।। देखहुरी हरि भोजन खात । सहसभुजाधरि उत जेवतहै इतहि कहत गोपिनसों बात ॥ ललिता कहत देखिहो राधा जो तेरे मन वात समाइ । धन्य सबै गोकुलके वासी