संग रहत त्रिभुवनके राइ॥ जेवत देखि नंद सुखपायो अति आनंद गोकुल नर नारी। सूरदास स्वामी सुखसागर गुण आगर नागर दैतारी॥५७॥ गौरी ॥ इह लीला सब करत कन्हाई। उत जेवत गिरि गोवर्धन सँग इत राधासों प्रीति लगाई॥ इत गोपनसों कहत जिमावहु उत आपुहि जेवत मन
लाई। आगे धरे छहौरस व्यंजन वदरौलाको लियो मँगाई॥ अमर विमान चढे सुख देखत जय ध्वनि करि सुमननि वरषाई। सूरश्याम सबके सुखदाता भक्तहेतु अवतार सदाई॥५८॥ गोपनिसों यह कहत कन्हाई। जो मैं कहत रह्यो भयो सोई सपनंतरकी प्रगट बताई॥ जो मांग्यो चाहौ सो मांगौ पावहुगे जो जा मनआई। कहत नंद सब तुमही दीनों मांगतहौं हरिकी कुशलाई। करजोरे नंद आगे ठाढे गोवर्धनकी करत बड़ाई। ऐसे देव कहूं नहिं देखे सहसभुजा धरि खात मिठाई॥ सदा तुम्हारी सेवा करिहौं और देव नहिं करौं पुजाई। सूरश्याम को नीके राखहु
कहत महर ये हलधर आई॥५९॥ अपने अपने टोल कहत ब्रजवासी आई। भावभक्ति लेचलौ सुदंपति आसीआई॥ शरदकाल ऋतु जानि दीपमालिका बनाई। गोपनके उदमाद फिरत उघमदे कन्हाई॥ घर घर थापे दीजिये घर पर मंगलचार। सातवर्षको सांवरो खेलत नंददुआर॥१॥२॥ बैठि नंद उपनंद बोलि वृषभानु पठाए। सुरपति पूजा देखि जानि तहां गोविंद आए॥ बार बार हाहाकरहि कहि वाबा यह बात। घर घर भोजन होतहै कौन देवकी जात॥३॥ श्याम तुम्हारी कुशल जानि एक मंत्र उपैहौं। षटरस भोजन साजि भोग सुरपतिको देहौं॥ नंद कह्यो चुचुकारिकै जाइ दमोदर सोई। वर्षदिवसको दिवसहै महामहोत्सव होई॥४॥
हरि बोले सब गोप मंत्र बहुरयो फिरि कीनो। एक पुरुष मोहि आइ आजु सपनो निशि दीनो॥ सब देवनको देवता गिरि गोवर्धनराजु। ताहि भोगु किनि दीजिये सुरपतिको कह काजु॥५॥ बाढैं गोमुत गाइ दूध दधिको कहालेखो। यह परचौ विद्यमान नैन अपने किन देखो॥ तोदेखत बलिखाइगो मुँहमाँगे फल देहु।गोप कुशलजो चाहिए गिरि गोवर्धन सेहु॥६॥ दिवस देवारकि प्रातही सब मिलि पूजन जाइनिंद प्रतीतिन मानहू अब तुम देखत वलि खाइ॥ गोपन करयो विचार शकट प्रति सबही साजे। वहुविधिके पकवान जहां तहां बाजन बाजे॥७॥ एक वाटते चले एक नदी सुरभीर। एक नपैडो पावहीं उमडे फिरहिं अहीर॥ इक घरते उठि चले एक घरको फिरि जाहिं। गावत गुण गोपालके ग्वाल उमगे न समाहि॥८॥ गोपनको सागर भयो गिरि भयो मंदरचार। रत्नभई सब गोपिका श्याम विलोवन हार॥ एक चौरासी कोस परे गोपनके डेरा। लावै चौवन कोश आजु ब्रजवासिन घेरा॥९॥ सबहीके मन श्यामलो देखौ सबनि मझारि। कौतुक देखन देवता आएलोक विसारि॥ लीने विप्र वुलाइ यज्ञ आरंभन कीनो। सुरपति पूजा मेटि भोग गोवर्धन दीनो॥१०॥ प्रथम दूध अन्हवाइ बहुरि गंगा जल डारे। बड़ो देवता जानि कान्हको मतौ विचारे॥ जैसे बने गिरिराज जू तैसो अनको कोट। मगन भए पूजा करैं नर नारी वड़ छोट॥११॥ सहसभुजा उरधरे करै भोजन अधिकाई। नख शिखलों पर्यंत मनो दूसरो कन्हाई॥ राधासों ललता कहै तेरे हिय न समाइ। गहे अंगुरिया तातकी ढोटा भोजन खाइ॥१२॥ पीतद्रुमाल्यो
श्वेत कंठ मोतिनकी माला। भूषण भुजा अनूप झलमलति नैन विसाला॥ श्यामकी सोभा गिरि बन्यो गिरिकी सोभा श्याम। जैसे पर्वत धातुको संग भैया बलराम॥१३॥ जैसिय कनकपुरी जु दिव्य रतननिसों छाई। बलिदीनी परभात छाँह पूरव चलि आई॥ चहूं और चक्राधरे चंदहि पटतर सोई। ठौर ठौर वेदी रची बहु विधि पूजाहोई॥१४॥ जहाँ तहाँ दधि धरयो।
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सूरसागर।
