पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०६

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दशमस्कन्ध १० (२१३) कहौं कहा उज्ज्वलताई । उदधि शिखरकै रह्यो भातमें देह छपाई ॥ वदरौला वृषभानुके एक विलोवन हारि। ताकी बलि वहि देवता लीन्ही भुजा पसारि ॥ १६॥ लै सब भोजन अरपि अरापि। गोपन करजोरे । अगणित कीने स्वाद दास वरणे कछु थोरे ॥ यहिविधि पूजा पूजिकै गोविंद पूंछो जाई। कान्ह कयो हँसि सूरसों लीला भली वनाई ॥ १६॥ गौरी ॥ श्याम कहत पूजा गिरि मानी। जो तुम भक्ति भावसों अयों देवराज सव जानी ॥ तुम देखत भोजन सब कीनो अब तुम मोहि पत्याने । वडो देव गिरिराज गोवर्धन इनै रहो तुम माने ॥ सेवा भली करी तुम मेरी देव कही यह वानी।सूर नंदमुख चूमत हरिको यह पूजा तुम ठानी ॥६०॥६॥ और कछू मांगो नंद हमसों जोमांगौ सो देउँ तुरतही यहै कहत गोपनसोवल मोहन दोऊ सुत तेरे कुशल सदा येरहि हैं।इनको कह्यो करत तुम रहियो जव जोई ये कहिहैं।।सेवा बहुत करी तुम मेरी अब तुम सब घर जाहू भोग प्रसाद लेहु तुम मेरो गोप सवै मिलि खाहू।सपनो मैंहीं कह्यो श्याम सों करहु हमारी पूजा।सुरपति कौन वापुरो मोते और देव नहिं दूजा ॥ इंद्र आइ वरपै जोब्रज पर तुम जिनि जाहु डराई । सुनहु सूर सुत कान्ह तुम्हारो कहि हैं मोहि सुनाई॥६२॥ सारंग ॥भली करी पूजा तुम मेरी । बहुत भाव करि भोजन अयॊ इह सब मानिलई मैं तेरी। सहसभुजा धरि भोजन कीनों तुम देखत विदमान । मोहिं जानतहै कुँवर कन्हैया यही नहीं कोउआनापूजा सवकी मानि मैं लीनी जाहु घरनि व्रजलोग। सूरश्याम अपने कर लीने बांटत झूठनि भोग ॥ ६३ ॥ विलावल ॥ विनती करत नंद करजोरे पूजा कह हम जानैं नाथाहम, जीव सदा मायाके दरश दियो हम किए सनाथा।महापतित मैं तुम पावन प्रभु शरण तुम्हारी आयो तात । तुमसे देव और नहिं दूजो कोटि ब्रह्मांडरोम प्रति गात।।तुम दाता अरु तुमहि भोक्ता हरता करता तुमहींसार । सूर कहा हम भोग लगायो तुमही भुलै दियो संसार।। ॥६४॥ यह पूजा मोहिं कान्ह वताई। भूल्यो फिरत द्वार देवनिके त्रिभुवनपति तुमको विसराई। आपहि कृपाकरी स्वप्नंतर श्यामहि दरश दियो तुम आई। ऐसे प्रभु कृपालु करुणामय वालककी अति करी बड़ाई ॥ गिरि पाँयनले हरिको पारत हलधरको पायन लै नाई । सूरश्याम बलराम तुम्हारे इनको कृपा करौ गिरिराई॥६॥वाल कहत धन्य धन्य कन्हैया।बड़ो देवता प्रगट वतायो यह कहि कहि सब लेत वलैया।।धन्य धन्य गिरिराजनकी मणि तुम सम आन न दूजा।तुम लायक कछ नाहिं हमारे को जानै तुम पूजागोप सबै मिलि कहत श्याम सों जो ककु कह्यो सो कोनोसूर- श्याम कहि कहि यह वाणी देव मानि सुखलीनो॥६६॥ गौहमलार।गोपनंद उपनंद वृपभा नु आए। विनय सव करत गिरिराजसों जोरि कर गए तनु पाप तुव दरशपाए।देवता बड़ो तुम प्रगट दरशन दियो प्रकट भोजन कियो सवनि देख्यो।प्रकट वाणी कही गिरिराज तुम सही और नाहिं तिहूँभुवन कहूँ पेख्यो।हँसत हरिमनहिमनतकत गिरिराज तन देव परसनभए करो काना। सूरप्रभु प्रगट लीला कही संवनि सों चले घर घरनि अपने समाजा॥णादेखि थकित गण गंधर्व सुरमुनि।धन्य नंदको सुकृत पुरातन धन्य कही कहि जैजैजै धुनि ॥ धन्य धन्य गोवर्धन पर्वत करत प्रशंसा सुर मुनि पुनि पुनिआ- पुहि खात कहतहै गिरिकोयह महिमा देखी न कहूं सुनि।यहै कहत अपने लोकनि गए धनि ब्रजवासी वशकीनों उनिासूरश्याम धनि धनि व्रजविहरत धन्य धन्य सव कहतहैं गुनि गुनि॥६॥नट नारायणी।। चले बज घरनिको नर नारि । इंद्रकी पूजा मिटाई तिलक गिरिको सारिपुलक अंग नसमात उरमें महर महरि समाजाअव बड़े हम देव पाए गिरि गोवर्धन राजाइनहिते ब्रज चैन रहिहै मांगि भोजन | खात। यह घेरा चलत ब्रजजन सवनि मुख यह बात।सवै सदनन आइ पहुँचे करत केलि विलास!