पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(२१४) सूरसागर। सूर प्रभु यह करी लीला इंद्ररिस परकास ॥६९॥ अध्याय ॥२५॥ इंद्रविचार । सारंग ॥ ब्रजके वासिन मो विसरायो । भलीकरी बलि मेरी जो कछु सो लै सब पर्वतहि जिमायो॥ मोसों गर्वकियो लघु प्राणी नाजानिये कहा मन आयो। त्रिदशकोटि अमरनको नायक जानि बूझि इन मोहिं भुलायो अब गोपन भूतल नहिं राखौं मेरी बलि मोको न चढ़ायो। सुनहु सूर मेरे मारतधौ पर्वत कैसे होत सहायो॥ ७० ॥ सोरठ ॥ प्रथमहि देउ गिरिहि वहाइ । वज्रपातनि करौ चूरन देउ धरण मिलाइ । मेरी इन महिमा नजानी प्रगट देउ दिखाइ । जलवरषि ब्रजधोइ डारौ लोग देउ वहाइ खात खेलत रहे नीके कार उपाधि वनाइ । बरष दिवस मोहि देत पूजा दई सोउ मिटाइ ॥ रिस सहित सुरराज लीन्हे प्रबल मेघ वुलाइ । सूर सुरपति कहत पुनि पुनि परौ बजपर धाइ ॥७॥ मेघमलार । सुनत मेघवर्तक साजि सैन लै आए । जलवर्त वारिवर्त पवनवर्त वजवर्त आगिवर्तक जलद संग ल्याए ॥ पहरात तरतरात गररात हहरात पररात झहरात माथनाए । कौन ऐसोकाज बोले हम सुरराज प्रलयके साज हमको बुलाए । वरष दिन संयोग देत मोको भोग क्षुद्रमति बज लोग गर्वकीनो । मोहिं गए विसराइ पूज्यो गिरिवर जाइ परो ब्रजपरधाइ आयसु यह दीनो॥ कितक ब्रजके लोग रिसकरत किहियोग गिरिलियो भोगफल तुरत पैहै । सूर सुरपति सुन्यो वयो जैसो लुन्यो प्रभुकहा गुन्यो गिरिसहित वैहै ॥७२॥ मलार ॥ विनती सुनहु देव मधवापति। कितिकवात गोकुल ब्रजवासी वारवार रिसकरत जाहि अति ॥ आपुन वैठि देखियो कौतुक बहुतै आयसु दीनो । छिनमें वरपि प्रलयजल पाटौं खोज रहै नहिं चीनो ॥ महाप्रलय हमरे जल वरले गगन रहे भरिछाई । अक्षयवृक्ष वट वचतु निरंतर कहा ब्रज गोकुल गाइ॥चले मेघ माथे कर धरिकै मनमें क्रोध बढाइ । उमडत चले इंद्रके पायक सूर गगन रहे छाइ ॥ ७३ ॥ गौडमलार ॥ मेघदल प्रवल ब्रजलोग देखै । चकित जहां तहां भए निरखि वादर नए ग्वाल गोपाल डरि गगन पेष।ऐसे वादर सजल रत अति महाबल घहरात कार चलत अंधकाला। चकृत भए । नंदसव महर चकृतभए चकृत नर नारि हरि करत ख्याला|वटा घनघोर पहरात अररात दररात सररात ब्रजलोग डरपे।तडित आघात तररात उतपात सुनि नर नारि सकुचि तनुप्राणअरपे॥ कहा चाहतही नभई नकवहूं जौन कबहूं आंगन भौन विकल डोल।मेटि पूजा इंद्र नंदसुत गोविंद सूरप्रभु करै आनंद कलोल१७४ासिनसाजि ब्रजपर चढि धावहिाप्रथम वहाइ देउ गोवर्धन तापाछे ब्रजखोदि वहावहि॥अहिरन करी अवज्ञा प्रभुकी सो फल उन कहँ तुरत देखावहिी इंद्रहि पेलि करी गिरि पूजा सलिल बरषि ब्रजनाउँ मिटावहिबल समेत निशि वासर वरपहु गोकुल बोरि पताल पठावहि।सूरदास | सुरपति आज्ञा यह भूतल कतहूं रहन नपावहि ॥ ७९ ॥ मेघमलार ॥ बादर घुमड़ि उमडि आए ब्रज पर वर्षत कारे धूमरे घटा अतिही जल । चपला अति चमचमाति ब्रजजन सब डर डरात टेरत शिशु पिता मात बज गलवल । गर्जत ध्वनि प्रलयकाल गोकुल भयो अंधकार चकृत भए ग्वाल बाल घहरत नभ करत चहल पूजामेटि गोपाल इंद्र करत इहै हाल सूरश्याम राखहु अब गिरिवर बल ॥७६॥ गौड़मलार ॥ गिरिपर वरषन आए बादर। मेघवर्त जलवर्त सैन सजि आये लैलै आदर। सलिल अखंड धार धर टूटत कियो इंद्र मन सादर। मेघ परस्पर यहै कहतहैं धोइ करहु गिरि खादर । देखि देखि डरपत ब्रजवासी अतिहि भए मन कादर । यहै कहत ब्रज कौन उवारै सुरपति किए दर ॥ सूरझ्याम देखे गिरि अपने मेघनिकीनो दादर । देव आपनो नहीं सँभारत करत इंद्रसों ठादर ॥ ७७॥ मलार॥ गए वितताइ ब्रज नरनारि । धरत सैंतत धाम वासन नाहि