पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३०९

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(२१६) सूरसागर। मानि मुखफेरो। श्रीपति कियो सहाय सूरप्रभु बूंद न आवत नेरो॥ ८७॥ मेवमलार ॥ गगनमेव । घहरात थहरात गात । चपला चमचमाति चमकि नम महरात राखिले क्यों नत्रजनंदतात।सुनत करुणावैन उठे हारि चले ऐन नैनकी सैनगिरि तन निहारा । सवनि धीरज दियो उचकि मंदर लियो कह्यो गिरिराज तुमको उबारो॥ करजके अग्र भुजवाम गिरिवर धरो नाम गिरिधर परयो भक्तकाजै । सूर प्रभु कहत ब्रज वासिनसों राखि तुम लिए गिरिराज राजै ॥ ८८ ॥ गौरी । श्याम लियो गिरिराज उठाई। धरि धीर हरि कहत सबनिसों गिरि गोवर्धन कियो सहाई ॥ नंद गोप ग्वालनके आगे देव कोयह प्रगट सुनाई । काहेको व्याकुलभए डोलत रक्षा करी देवता आई। सत्यवचन गिरिदेव कहतहै कान्ह लेइ मुहि कर उचकाई । सूरदास नारी नर ब्रजके कहत धन्य तुम कुवर कन्हाई ॥८९॥मलार ॥वामकर चढे क्यों गिरिराज।गोपी गाइ ग्वाल गोसुत सब दुःखविसारयो । सुखकरत समाज॥आनँद करत सकल गिरिवर तर दुख डारयो सवही विसराइ। चकृतभए देखत यह लीला सबै परत हरि चरणनधाइ।गिरिवर टेकि रहे बायेंकर दक्षिण कर लियो सखनि उठाइ। कान्ह कहत ऐसो गोवर्धन देख्यो कैसो कियो सहाइ ॥ गोप वाल नंदादिक जहँलौं नंदसुवन लिए निकट बुलाइ। सूरदास प्रभु कहत सबनिसों तुमहूं मिलि टेकौ गिरिआइ ॥ ९०॥ गिरि जनि गिरे श्यामकै करते । करत विचार सवै ब्रजवासी भयउपजत अतिडरते ॥ लैलै लकुट ग्वाल सब धाए करत सहाय उठे तुरते। यह अति प्रबल श्याम अतिकोमल वकि खकि उर परते ॥ सप्त दिवस: कर पर गिरिधारयो वर्षावरषि हारयो अमरतोगोपीग्वाल नंद सुत राख्यो वरपत मेघधार जलधरते. 'यमलार्जुन दोउसुत कुवरके तेउ उखारेजरते। सूरदास प्रभु इंद्रगवन कियो ब्रजराख्योहै वरते॥११॥ मलार ॥ नकि धरो नँदनंदन बलवीर । गिरि जनि परै टरै नखते तब कौन सहैगो पीर ॥ चहुँदिश पवन झकोरत घोरत मेघघटा गंभीर । उनै उनै वरपतु गिरि ऊपर धार अखंडित नीर ।। अंध. धुंध अंवरते गिरिपर मानौ परत वनके तीर । चमकि चमकि चपला चकचौंधति श्याम.. कहत मनधी॥कर जोरत कुलदेव मनावत ब्रजके गोप अहीरापय पकवान विहान पूजिहलै दधि मधु घृत । खीर॥ गोपी ग्वाल गाइ गोसुत सब रहैं सुख सहित शरीर । सूरश्याम गिरिधरयो वामकर मेघभए । अति सीर ॥ ९२ ॥ गिरिवरनीके धरयो कन्हैया । देखतरहो टरे जनि नखते भुजा तनकसी भैया। जब जब गाढ परत ब्रजलोगन तब करि लेत सहैया । जननि यशोदा करलै चांपति अतिश्रमः होतिरिदैया। देखत प्रगट धरयो गोवर्धन चकितभए नंदरैया। पिता देखि व्याकुल मनमोहन तब एक बुद्धि उपजैया ॥ आवहु तात गेहहु गोवर्धन गोपनसंग लिवैया । जहां तहां सबहुन गिरि टेक्यो कान्हहि बोतदिवेया॥श्याम कहत सब नंद गोपसों भलो करयो उचकैया। सूरदास प्रभु.अतः यामी नंदहि हरष बढैया ॥ ९३ ॥ गिरिवरधरयो सखा सब करते । सब मिलि खाल लकुटियानः टेको अपने सुजके वरते॥सात दिवस मूशलजलधारा.बरपतुहै निशिदिन अंबरते।अंतरिक्ष जलजात । कहाँ ये क्रोध सहित फिरि बरषत झरतोगाइ गोप नंदादिक राख्यो वृथा बूंदसव नेकु न थरते । सूर गोपाल राखि गिरिवरतर गोकुल नर नारी ब्रज घरते ॥ ९४ ॥ बरपत मेघवत धरणीपरः। मूल धार सलिल बरषतु है बूंद न आवत भूप॥चपला चमकि चमकि चकचौंधति करति शब्दआघात, अंधाधुंध पवनवर्तकघन करत फिरत उत्पात निशिसम गगनभयो आच्छादित वरपि वराप झर इंदु। ब्रजवासी सुख चैन करतहैं कर गिरिवर गोविंद ॥ मेघ बरपि जल सवै बढाने विविगुण गर सिराइ । वैसोई गिरिवर वैसोई ब्रजवासी दूनो हरष बढाइ॥ सात दिवस जल वार्ष निसा दिन