पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१०

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दशमस्कन्ध-१० (२१७) घर घर आनंद । सूरदास ब्रज राखिलियो धरि गिरिवर कर नँदनंद ।।९५॥ वादर ब्रजपर आनि अरे । तवते वाम करज पर राख्यो बहुरि फेरि घुमरे ॥ सात दिवस मूसल जलधारा सायर समुद्र भरे। नहिं परवाह नंदके ढोटहि पूरतवेनु धरे ॥ लियो.उठाइ कोपिकै गिरिवर सकल शरन उबरे । सूरदास बलि बलि चरणनकी सुरपति पॉइपरे॥९६वरपि वरपि व्रजतन धन हेरत । मेघवर्त अपनी सैनाको खीझतहै फिरि टेरत॥ कहा वरपि अवलौं तुम कीनो राखत जलहि छपाइ । मूसलंधार वरपि जलपाटौ सात दिवस भए आइ ॥ रिस कार करि गर्जत नभ वर्षत. चाहत ब्रजहि बहाइ.। सूरश्यामागिरि गोवर्धन धरि ब्रजजनको सुखदाइ ॥ ९७ ॥ बरपि वरपि. हहरे सब बादर। अजके लोगन धोइ बहावहु इंद्र हमहि कहि आदर ॥.कहा जाइ कै . प्रभु आगे कीरहैं बहुत निआदर । हम वर्षत पर्वत जलसोखत बनवासी. सब सादर ॥ पुनि रिस. करत प्रलयजल वरपत कहत भए सब कादर। सूर गाइ गोसुत सब राख्यो गिरि वर धरि ब्रजनागर ॥॥ ९८॥धनाश्री ॥ कहाहोत जल महाप्रलयको । राख्यो सैंति सैंति जेहिकारज बचत नहीं कहुँ मनको ॥ भुवपर एक बूंद नहिं पहुँची निझार गए सब मेह। वासर सात अखंडित धारा वरपत हारे देह ॥ वरुन भयो विननीर सपनिको नाम रह्योहै बादर । सूरचले. फिरि अमर राज़ परव्रजते भए निरादर॥९९।।मलारामघवनिहारिमानि मुख फेरोनीके गोपबड़े गोवर्धन जवनी के ब्रज देरो ॥ नीकेगाइ वच्छ सब नीके नीके वालगोपाल।नीको वन वैसीये यमुना मन.मन भयो विहाल गोकुल बज वृंदावन मारग नेकनहीं जलधार। सूरदास प्रभु अगणित महिमा. कहाभयो जलसार ॥ ९००॥ नटनारायण ॥ मघवन जाइ कहि पुकारी । दीनद्वै सुरराज आगे अस्त्र दीने डारी सात दिन भरि वरपि.ब्रजपर गई नेक नझार । अखंड धारा सलिल निझरो मिटी नहीं लगार. ॥ धरणि नेकु नयूँद पहुँच्यो हरपे व्रज नर नारि । सूर मेघन इंद्र आगे करत यहै गुहारि ॥१॥ गौरी ॥ तुम वरपे ब्रज कुशल परयो। तुम वरपत जल महा प्रलयको यह कहि मन मन सोच परयो । एक घरी ज़ाके वरपेते गगन आच्छादित होई । तेमघवा विह्वल मो आगे बात कहतहैं रोई ॥ सात दिवस जल वरपि सिराने ताते भए निरास । सूरदास सुरपति संकित भयो सुरन बुलायो पास ॥२॥ अमरराज सव अमर बुलाए । आज्ञा सुनत सकल घर घरते आए कछु विलंबु ना लाए.॥ कौन काज़ सुरराज हमारो हमको आयसु होई । देखौ मेघवर्तकनिकी गति बजते आए रोई गोवर्धनकी करी पुजाई मुहि डारयो विसराइ ॥ मेघवर्त्त जलवल पठाए. आवहु ब्रजहि वहाइ ॥धार अखंडित वरपि सातदिन व्रज पहुँची नहिं बूंद । सुरनि कही गोकुल प्रगटे हैं पूरण. ब्रह्ममुकुंद..। मोसों क्यों न कही तुम तवहीं गोकुलमें ब्रजराज । सूरदास प्रभु कृपा करहिंगे शरनचलौ दिवराज ॥३॥सोरठाशरण गए जो होइ सु होई । वे करता वेईहैं हरता अब.नरहौं मुख गोई ॥ ब्रज अवतार कह्यो है श्रीमुख तेई करत विहार । पूरण ब्रह्म सनातन वेई मैं भूल्यो संसार ।। उनके.आगे चाहों पूजा ज्योमणि दीप प्रकाशा रविआगे खद्योत उज्यारीचंदन संग कुवास ।। कोटि इंद्र छिनहीं मेरा. छिन में करें विनाश । सूर रच्यो उनहीको सुरपति मैं भूल्यो तिहि आश ॥४॥सारंग। प्रगट भए ब्रज त्रिभुवन राइ ।युग गुण वीति त्रिगुण बुधि व्यापी शरन चलौ सुरपति अकुलाइ।।सपनेको धनु जागि परे ज्योंत्यों जानी अपनी ठकुराइ । कहत. चल्यो यह कहाकियो मैं जगतपिता सोकरी ढिठाइ ॥ शिव विरंचि राचे इंद. वरुन, यम लिए अमर गण संग.लगाइ। वार वार शिर धुनत जातु मग कहौं कहा वदन दिखराइ ॥ हैं परम कृपालु महाप्रभु रहौं शीश चरणन तरनाइ ॥ सूरदास. प्रभु.पिता ॥ -