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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१०

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दशमस्कन्ध-१०


घर घर आनंद। सूरदास ब्रज राखिलियो धरि गिरिवर कर नँदनंद॥९५॥ वादर ब्रजपर आनि अरे। तबते वाम करज पर राख्यो बहुरि फेरि घुमरे॥ सात दिवस मूसल जलधारा सायर समुद्र भरे। नहिं परवाह नंदके ढोटहि पूरतवेनु धरे॥ लियो उठाइ कोपिकै गिरिवर सकल शरन उबरे। सूरदास बलि बलि चरणनकी सुरपति पाँइपरे॥९६॥ बरषि बरषि ब्रजतन धन हेरत। मेघवर्त अपनी सैनाको खीझतहै फिरि टेरत॥ कहा वरषि अबलौं तुम कीनो राखत जलहि छपाइ। मूसलंधार वरषि जलपाटौ सात दिवस भए आइ॥ रिस कार करि गर्जत नभ वर्षत चाहत ब्रजहि बहाइ। सूरश्याम गिरि गोवर्धन धरि ब्रजजनको सुखदाइ॥९७॥ बरषि बरषि हहरे सब बादर। ब्रजके लोगन धोइ बहावहु इंद्र हमहि कहि आदर॥कहा जाइ कैहैं प्रभु आगे करिहैं बहुत निआदर। हम बर्षत पर्वत जलसोखत ब्रजवासी सब सादर॥ पुनि रिस करत प्रलयजल बरषत कहत भए सब कादर। सूर गाइ गोसुत सब राख्यो गिरिवर धरि ब्रजनागर॥॥९८॥ धनाश्री ॥ कहाहोत जल महाप्रलयको। राख्यो सैंति सैंति जेहिकारज बचत नहीं कहुँ मनको॥ भुवपर एक बूंद नहिं पहुँची निझरि गए सब मेह। बासर सात अखंडित धारा बरषत हारे देह॥ बरुन भयो बिननीर सबनिको नाम रह्योहै बादर। सूरचले फिरि अमर राज पर ब्रजते भए निरादर॥९९॥ मलार ॥ मघवनि हारि मानि मुख फेरो। नीके गोपबड़े गोवर्धन जबनी के ब्रज देरो॥ नीकेगाइ वच्छ सब नीके नीके बालगोपाल। नीको वन वैसीये यमुना मन मन भयो विहाल। गोकुल ब्रज वृंदावन मारग नेकनहीं जलधार। सूरदास प्रभु अगणित महिमा कहाभयो जलसार॥९००॥ नटनारायण ॥ मघवन जाइ कहि पुकारी। दीनह्वै सुरराज आगे अस्त्र दीने डारी सात दिन भरि बरषि ब्रजपर गई नेक नझार। अखंड धारा सलिल निझरो मिटी नहीं लगार॥ धरणि नेकु नवूँद पहुँच्यो हरषे ब्रज नर नारि। सूर मेघन इंद्र आगे करत यहै गुहारि॥१॥ गौरी ॥ तुम बरषे ब्रज कुशल परयो। तुम वरपत जल महा प्रलयको यह कहि मन मन सोच परयो। एक घरी ज़ाके बरषेते गगन आच्छादित होई। तेमघवा विह्वल मो आगे बात कहतहैं रोई॥ सात दिवस जल बरषि सिराने ताते भए निरास। सूरदास सुरपति संकित भयो सुरन बुलायो पास॥२॥ अमरराज सब अमर बुलाए। आज्ञा सुनत सकल घर घरते आए कछु विलंबु ना लाए॥ कौन काज सुरराज हमारो हमको आयसु होई। देखौ मेघवर्तकनिकी गति ब्रजते आए रोई गोवर्धनकी करी पुजाई मुहि डारयो विसराइ॥ मेघवर्त्त जलवर्त्त पठाए आवहु ब्रजहि बहाइ॥ धार अखंडित बरषि सातदिन ब्रज पहुँची नहिं बूंद। सुरनि कही गोकुल प्रगटे हैं पूरण ब्रह्ममुकुंद। मोसों क्यों न कही तुम तबहीं गोकुलमें ब्रजराज। सूरदास प्रभु कृपा करहिंगे शरनचलौ दिवराज॥३॥ सोरठ ॥ शरण गए जो होइ सु होई। वे करता वेईहैं हरता अब न रहौं मुख गोई॥ ब्रज अवतार कह्यो है श्रीमुख तेई करत विहार। पूरण ब्रह्म सनातन वेई मैं भूल्यो संसार॥ उनके आगे चाहों पूजा ज्योमणि दीप प्रकाश। रविआगे खद्योत उज्यारी चंदन संग कुवास॥ कोटि इंद्र छिनहीं मेंराचैं छिन में करैं विनाश। सूर रच्यो उनहीको सुरपति मैं भूल्यो तिहि आश॥४॥ सारंग ॥ प्रगट भए ब्रज त्रिभुवन राइ। युग गुण बीति त्रिगुण बुधि व्यापी शरन चलौ सुरपति अकुलाइ॥ सपनेको धनु जागि परे ज्यों त्यों जानी अपनी ठकुराइ। कहत चल्यो यह कहा कियो मैं जगतपिता सोंक री ढिठाइ॥ शिव विरंचि राचे इंद वरुन यम लिए अमर गण संग लगाइ। वार वार शिर धुनत जातु मग कहौं कहा वदन दिखराइ॥ हैं परम कृपालु महाप्रभु रहौं शीश चरणन तरनाइ॥ सूरदास प्रभु पिता॥