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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३११

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सूरसागर।


मात मैं ओछी वृद्धि करी लरिकाइ॥५॥ इंद्र शरणचले॥कान्हरो ॥ सुरगण सहित इंद्र ब्रज आवत। धवल वरन ऐरापति देख्यो उतार गगनते धरणि धँसावत॥ अमरा शिव रवि शशि चतुरानन हय। गय वसह हंस मृग जावत। धर्मराज बनराज अनलदिव शारद नारद शिवसुत भावत॥ मेंढा मढी मगरगुडरारो मोर आषु मनवाह गनावत। ब्रजके लोग देखि डरषे मन हरि आगे कहि कहि जुसुनावत॥ सातदिवस जल वरषि बटान्यो आवत चल्यो ब्रजहि अन्नावत। घेरा करत जहां तहां ठाढे ब्रजवासिनको नहीं बचावत॥ दूरहिते वाहनसों उतरयो देवन सहित चल्यो शिरनावत॥ आइ परयो चरणनतर आतुर सूरदास प्रभु शीश उठावत॥६॥ सुरपति चरण परयो गहिधाइ। युग गुणधोइ शेषगुण जान्यो शरणहि राखिलेहु शरनाइ॥ तुम विसरे तुमरी मायामें तुम, विनु नाहीं और सहाइ। शरन शरन पुनि पुनि कहि कहि मोहिं राखि राखि त्रिभुवनके राइ॥ मोते चूकपरी विनुजाने मैं कीने अपराध बनाइ। तुम माता तुमही जगदाता तुम भ्राता अपराध क्षमाइ॥ जो बालक जननीसें विरुझै माता ताको लेइ मनाइ। ऐसेहि मोहिं करौ करुणामय सूरश्याम ज्यों सुतहित माइ॥७॥ विलावल ॥ व्याकुल देखि इन्द्रको श्रीपति उभय भुजा करि लियो उठाइ। अभय निभय कर माथे दीनो श्रीमुखवचन कह्यो मुसिक्याइ॥ कहाभयो जु चढे ब्रज ऊपर मैं तुरतहि करि लियो सहाइ। हमको जानि नहीं तुम कीनो विनजाने यह करी ढिठाइ॥ अब अपने जिय सोच करौ जिनि यह मेरी दीनी ठकुराइ॥ सूरश्याम गिरिधर सब लायक इंद्रहि कह्यो करो सुखजाइ॥८॥ रागनट ॥ सुरगण करत स्तुति मुखनि। दरशते तनुताप खोयो मेटि अपके दुखनि॥ अंग पुलकित रोम गदगद कहत वाणी मुखनि। वामभुज करटेकि राख्यो करज़ लघुके नखानि॥ प्रेमके वश तुमहि कीन्हो ग्वाल बालक सखनि। योगि जन वन तप न जाप न नही पावत मखनि॥ धन्य नंद धनि मातु यशोमति चलत जाके रुखनि। सूरप्रभु महिमा अगोचर जाति कापै लखनि॥९॥ भैरव ॥ जयमाधव गोविंद मुकुंदरि। कृपासिंधु कल्याण कंसअरि॥ प्रणतपाल केशव कमलापति। कृष्णकमल लोचन अनन्यगति॥ श्रीरामचन्द्र राजीव नैननवर शरण साधु श्रीपति सारंगधर ॥ वनमाली विठ्ठल वावन वल। वासुदेव वासी ब्रजभूतल ।। खरदूषण त्रिशिरा शिरखंडन। चरण चिह्न दंडक भुअमंडन॥ वकी वदन वक वदन विदारन। वरुन विषाद नंद निस्तारन॥ ऋषि मख तृणा तारकातारन। वनवसि तात वचन प्रतिपालन॥ कालीदमन केशिकरपातन। अघ अरिष्ट धेनुक अनुघातन॥ रघुपति प्रबल पिनाक विभंजन। जगहित जनक सुता मनुरंजन॥ गोकुलपति गिरिधर गुणसागर। गोपीरमन राशिरतिनागर। करुणामय कपिकुल हितकारी। बालिविरोध कपट मृगहारी॥ गुप्त गोपकन्या व्रतपूरन दुष्टन दुख भक्त न दुखचूरन॥ रावण कुंभकर्ण शिरछेदन। तरु वर सात एक शर वेधन॥ शंखचूड चाणूर संहारन। शक कहै मोको रक्षाकरन॥ उत्तरकृपा गीध हितकारी। दरशनदे शबरी उद्धारी॥ जेपद सदा शंभुहितकारी। जेपद परसि सुरसरी गारी॥ जेपद रमा हृदयनहिं टारी। जेपद तिहूँभुवन प्रतिपारी। जेपद अहिफन फन प्रतिधारी। जेपद वृंदावनहि विहारी॥ जेपद शकटासुर संहारी। जेपद पंडव गृह पगुधारी॥ जेपद रज गौतम तियतारी। जेपद भक्तनके सुखकारी॥ सूरदास सुर याचत तेपद। करहु कृपा अपने जनपर सद॥ आसावरी ॥ स्तुति करि सुर घरनि चले। यहै कहत सब जात परस्पर सुकृत हमारे प्रगट फले॥ शिवविरंचि सुरपति कहँ भाषत पूरण ब्रह्महि प्रगट मिले। धन्य धन्य यह दिवस आजुको जातहै मारग करत मिले॥ पहुँचेजाइ आपुने लोकनि अमर नारि सब हरष भरे। सूरश्यामकी