पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१२

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(२१९) - - दशमस्कन्ध-१० लीला सुनि सुनि अतिहित मंगल गानकरे॥१०॥ मलारादिखियत दोउ घन उनए । उत घन वासव भक्ति वश्ययत नर इक रोप भए । उत सुरचाप कला प्रचंड इत तडित पीत पट श्यामनए । उत सैनापति वरपि मुसलसम इत प्रभु अमिय दृष्टि चितए ॥ युगल वीच गिरिराज विराजत कर जु उठाइ लए । मनौ विवि मरकत वीच महा नग चतुर नारि बनए । लुढत शकके शीशं चरण तर युग गुण गत समए । मानहु कनकपुरी पतिके शिर रघुपति फेरि दए ॥ भए प्रसन्न सकल सुरपुरको प्रमुदित फेरि गए । सूरदास गिरिधर करुणामय इंद्रथापि पठए ॥११॥देखो भाई वदरनिकी वरियाई । मदनगोपाल परयो गिरिवरकर इंद्र ढीठ झरलाई॥ जाके राज सदासुख कीनो तासों कौन बड़ाई। सेवकु करै स्वामिसों सरवर इनिवातनि पतिजाई ।। इंद्र ढीठ वलि खाइ हमारी आप अकलगई। सूरदास तेहिको काको डर जिहि वन सिंह कन्हाई ॥ १२ ॥ सोरठ ॥ जहां तहां तुम हमहि उवारयो । ग्वाल सखा सब कहत श्यामसों धनि यशुमति अवतारयो॥ तृणा वर्त्त ब्रजपर चढिआयो लाग्यो देनउडाइ। अतिशिशुतामें ताहि संहारयो परयो शिलापर आइ॥ फलजनवै बालक सँग खेलत केशी आयो साथ। वाहि मारि तुम हमाहिं उवारयो ऐसे त्रिभुवननाथ।। कागासुर शकटासुरमारयो पय पीवत दनुनारी।अपामसुरते हमहिं निकास्यो वकावदन धरिफारी॥ | कालीदह जल अगए मरितब तुम लिये जिवायासूरश्याम सुरपतितेराखे देतोसवनि वहाइ॥१३॥ | हमको नँदनंदनको गारो। इंद्रकोप ब्रज वहाजातहै गिरिधर सकल उवारो॥राम कृष्ण बल वदत ने काहू निडर चरावत चारो । विगरै सवरै हमरे शिर ऊपर बलको वीर रखवारो ॥ तवहीं हमहि भरोसो आयो केशी तृणावर्त जय मारयो। सूरदास प्रभु रंगभूमिमें हरि जीत्यौ नृप हारयो ।। १४॥ मलार ॥तुम सुरपतिको मान हरयो । वरपत शुंड दंडधर धारा छिन छिन एक में प्रलय करयो ॥ ऐरावत आरूढ़ अग्रपन लघुता जानि जुरोपभरयो । देखेदीन दुखित नंदादिक लीला गिरिवर कर जुधरयो । सूरदास करुणामय माधव व्रज सुख उनको गरव हरयो ॥१६॥ विलावल। ब्रज युवती ब्रजजन ब्रजवासी कहत श्यामसर कौन करे। व्रजमारत ब्रजनाथहि आगे बज्रायुधं मन क्रोध करै।। बलसमेत वरष्योत्रजऊपर पल मोहनकी सुधि नकरैः। हारिमानि हहरयो हरि चरणनि हरपि हिये अब हेतु करे ।।गरजि गरजि पहरात गुसांकार गिरिवारो यह पैजुकरै । सूरदास गिरिधर करुणामय तुम विनुको प्रभु क्षमाकरै । मेघमलार ॥श्याम गिरिराज क्यों धरयो करसो । अतिहि विस्तार अतिभार तुम वार अति वाम भुज टेकि लघु जात करसो।कहत सब ग्वाल धनि धन्य नंद लाल ब्रज धन्य गोपाल बल कितिक करसोधिन्य यशुमति मात जिनि जन्यो तुम तात घोरिमाखन खात बाँधे करसोकान्ह हसिक कह्यो तुम सबन गिरिगहो रह्यो हो ब्रज बहह्यो लकुट करसो। सूरप्रभुके चरित कहा बल गिरि धरत चरणरज लेत सुरराज करसो ॥ मलार ॥ हाहारे हठीले हरि । अपनी जननीको कहयो करि इंद्र पराप गयो अव गिरिवरधार। सातदिवस कीनी-छाँह नेकुःन पिरानी वांह अति कठिन कुटु राख्यो रे छतनि करािसुनिक यशोदा धाइ निकट गोपाल करौरे सबै सहाय नैन रहे जलभारि॥ कुलके देव मनाए देवेको द्विज बुलाये जाहि जोई भायो इंद्रकोप जियोरे कन्हैया प्यारोजाके राज सुखकरि । सूरदास प्रभु गिरिधरको कौतुक देखि कामधेनु आयो धायो इंद्र अपडर डर ॥१६॥ सारेठ ।। जव करतें गिरि धरयो उतारि । श्याम करो वहुरो गिरि पूजहु ब्रज जन लिए उवारि ॥ यह सुनतहि मन हर्ष बढ़ायो कियो पकवानु सँवारि । बहु मिष्टान्न बहुत विधि भोजन बहु व्यंजन अनुहारि ॥ परसि धरो गोवर्धन आगे जेवत आति रुचि भारि सूरश्याम -