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पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३१२

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दशमस्कन्ध-१०


लीला सुनि सुनि अतिहित मंगल गानकरे॥१०॥ मलार ॥दिखियत दोउ घन उनए। उत घन वासव भक्ति वश्ययत नर इक रोप भए। उत सुरचाप कला प्रचंड इत तडित पीत पट श्यामनए। उत सैनापति वरषि मुसलसम इत प्रभु अमिय दृष्टि चितए॥ युगल वीच गिरिराज विराजत करजु उठाइ लए। मनौ विवि मरकत बीच महा नग चतुर नारि बनए। लुढत शकके शीश चरण तर युग गुण गत समए। मानहु कनकपुरी पतिके शिर रघुपति फेरि दए॥ भए प्रसन्न सकल सुरपुरको प्रमुदित फेरि गए। सूरदास गिरिधर करुणामय इंद्रथापि पठए॥११॥ देखौ भाई वदरनिकी वरियाई। मदनगोपाल धरयो गिरिवरकर इंद्र ढीठ झरलाई॥ जाके राज सदासुख कीनो तासों कौन बड़ाई। सेवकु करै स्वामिसों सरवर इनिवातनि पतिजाई॥ इंद्र ढीठ वलि खाइ हमारी आपै अकलगई। सूरदास तेहिको काको डर जिहि वन सिंह कन्हाई॥१२॥ सोरठ ॥ जहां तहां तुम हमहि उवारयो। ग्वाल सखा सब कहत श्यामसों धनि यशुमति अवतारयो॥ तृणा वर्त्त ब्रजपर चढिआयो लाग्यो देनउडाइ। अतिशिशुतामें ताहि संहारयो परयो शिलापर आइ॥ फलजनवै बालक सँग खेलत केशी आयो साथ। वाहि मारि तुम हमाहिं उवारयो ऐसे त्रिभुवननाथ॥ कागासुर शकटासुर मारयो पय पीवत दनुनारी।अघाअसुरते हमहिं निकास्यो वकावदन धरिफारी॥ काली दह जल अचैगए मरि तब तुम लिये जिवाय। सूरश्याम सुरपतिते राखे देतो सबनि वहाइ॥१३॥ हमको नँदनंदनको गारो। इंद्रकोप ब्रज वहाजातहै गिरिधर सकल उबारो॥ राम कृष्ण बल वदत न काहू निडर चरावत चारो। बिगरै सवरै हमरे शिर ऊपर बलको वीर रखवारो॥ तबहीं हमहि भरोसो आयो केशी तृणावर्त जब मारयो। सूरदास प्रभु रंगभूमिमें हरि जीत्यौ नृप हारयो॥१४॥ मलार ॥ तुम सुरपतिको मान हरयो। वरपत शुंड दंडधर धारा छिन छिन एक में प्रलय करयो॥ ऐरावत आरूढ़ अग्रघन लघुता जानि जुरोषभरयो। देखेदीन दुखित नंदादिक लीला गिरिवर कर जुधरयो। सूरदास करुणामय माधव ब्रज सुख उनको गरव हरयो॥१६॥ विलावल ॥ ब्रज युवती ब्रजजन ब्रजवासी कहत श्यामसर कौन करै। ब्रजमारत ब्रजनाथहि आगे बज्रायुधं मन क्रोध करै॥ बलसमेत बरष्यो ब्रजऊपर बल मोहनकी सुधि नकरै। हारिमानि हहरयो हरि चरणनि हरपि हिये अब हेतु करे॥ गरजि गरजि घहरात गुसांकार गिरिवारो यह पैजुकरै। सूरदास गिरिधर करुणामय तुम विनुको प्रभु क्षमाकरै। मेघमलार ॥ श्याम गिरिराज क्यों धरयो करसो। अतिहि विस्तार अतिभार तुम वार अति बाम भुज टेकि लघु जात करसो॥ कहत सब ग्वाल धनि धन्य नंद लाल ब्रज धन्य गोपाल बल कितिक करसो। धिन्य यशुमति मात जिनि जन्यो तुम तात बोरि माखन खात बाँधे करसो॥ कान्ह हँसिकै कह्यो तुम सबन गिरिगह्यो रह्यो हो ब्रज बहह्यो लकुट करसो। सूरप्रभुके चरित कहा बल गिरि धरत चरणरज लेत सुरराज करसो॥ मलार ॥ हाहारे हठीले हरि। अपनी जननीको कहयो करि इंद्र बरषि गयो अब गिरिवरधार। सातदिवस कीनी-छाँह नेकु न पिरानी वांह अति कठिन कुटु राख्यो रे छतनि करि। सुनिकै यशोदा धाइ निकट गोपाल करौरे सबै सहाय नैन रहे जलभारि॥ कुलके देव मनाए देवेको द्विज बुलाये जाहि जोई भायो इंद्रकोप जियोरे कन्हैया प्यारो जाके राज सुखकरि। सूरदास प्रभु गिरिधरको कौतुक देखि कामधेनु आयो धायो इंद्र अपडर डर॥१६॥ सारेठ॥ जब करतें गिरि धरयो उतारि। श्याम कह्यो बहुरो गिरि पूजहु ब्रज जन लिए उवारि॥ यह सुनतहि मन हर्ष बढ़ायो कियो पकवानु सँवारि। बहु मिष्टान्न बहुत विधि भोजन बहु व्यंजन अनुहारि॥ परसि धरो गोवर्धन आगे जेंवत आति रुचि भारि सूरश्याम